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आत्म कथा
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में माना जाता था । परन्तु धीरे धीरे सब लोग मर गये सिर्फ मेरी बुआ [ पिताजी की बड़ी बहिन ] और उनके जेठ का पुत्र बच रहा । साहूकारी सब डूब गई । ऋण रह गया, दूकान में आग लग गई या छूटने के लिये लगादी गई | बुआ के पास रहने का मकान -- जो काफी बड़ा था और कुछ स्त्रीधन रह गया । फिर भी वे मेरे पिताजी को मन वचन से और यथाशक्ति धन से सहायता करती थीं। कभी कभी शाहपुर आती थीं। उनका मुझपर बड़ा प्रेम था |
शाहपुर में मेरा शशवकाल ही व्यतीत हुआ था फिर भी मुझे अनेक बातों का स्मरण हैं । वहां का मंदिर, दौड़-दौड़ कर रेलगाड़ी देखना, वरसात में वालूके घर बनाना आदि अभी भी याद हैं । कुछ ऐसी बातें भी याद हैं जो मूर्खता नहीं किंतु वालोचित भोलेपन का परिणाम है। इससे वालमनोवृत्ति का पता लगता है । बालक एक तरफ़ बड़े तार्किक होते हैं तो दूसरे तरफ श्रद्धालु भी होते हैं । उनकी श्रद्धा का दुरुपयोग न करना चाहिये न तार्किकता का दमन करना चाहिये । ख़ैर, मैं शैशव के हास्यास्पद संस्मरण तो सुना दूं ।
एकवार मेरे पिताजी दूध लाये । मेरी आदत थी कि दूध देखा और मुँह लगाया । इससे बचने के लिये उनने कह दिया कि यह दूध नहीं मठ्ठा है । उस समय अविश्वास करने लायक वुद्धि पैदा नहीं हुई थी इसलिये मैंने नाक सिकोड़ ली। थोड़ी देर बाद जब वह गरम किया गया तव पिताजी ने मुझे पीने को