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आत्म-कथा ही सम्मान होना चाहिये । ज्ञान पुण्योत्पादक है, धन पुण्योत्पादक नहीं, सिर्फ पुण्यफल है।
यों तो गरीत्र का लड़का होने से मुझ में दीनता ही . अधिक है, यह कृत्रिम गौरव तो ब्राह्मणों के सहवास से आगयां था । पर दुनिया कितनी बदल गई है इस का अनुभव होने पर यही कहना पड़ा कि वह सब पागलपन ही था। आज तो विद्वत्ता लक्ष्मी के इशारे पर नाचती है। लक्ष्मी रानी है, विद्वत्ता नर्तकी है । सेठों को हथियाने के लिये जैन पंडित जो चापलूसी करते हैं, उनके दोषों पर जो उनेक्षा करते हैं, क्षुद्र गुणों को जिस तरह बढ़ा बढ़ा कर स्तुतिगान करते हैं, सेठ लोग जिस तरह समाज को रखना चाहते हैं उसी तरह रखने के लिये पंडित लोग जो शास्त्र की दुहाई देते हैं, सेठजी नाराज न हो जायँ इसलिये अपने विचाग को दबाकर जो आत्महत्या करते हैं, उसको देखकर यही कहना पड़ता है कि लक्ष्मी सरस्वती को रानी नर्तकी की उपमा परिस्थिति का प्रतिबिम्ब ही है। उस में औचित्य भले ही न हो पर वस्तुस्थिति यही है ।.
.. . .अब तो. यह भी सोचने लगा हूं कि विद्वानों का यह अपमान उचित भी है । क्योंकि जिस विद्वत्ता ने आत्मगौरव, सत्यभाक्ति, सदसद्विवेक निर्भयता और आदर्श जीवन नहीं पिखाया उसका मूल्य नटकला के सिवाय और क्या हो सकता है? जब उस में आध्यात्मिकता के प्राण नहीं हैं तत्र भौतिक वस्तुओं की तरह अर्थशास्त्र के नियमानुसार वह दुनिया के बाजार में विकेगी। .