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:११२ .. आत्म कथा मानव-समाज पशुओं से आगे न होता । पूर्वजों से लेकर ही मनुष्य आगे बढ़ सका है, तूने अगर किसी से छटाक भर लिया है. तो सेर भर देना तेरा फर्ज है । मनुष्य कर्महीन नहीं हो सकता और . . जब कर्म अनिवार्य है तब कर्म को ईसा क्यों न बनाना चाहिये - जिससे विश्वहित. हो सके.। जीवन-निर्वाह के लिये जगत से कुछ
लेना ही पड़ेगा. तो उसके बदले में कुछ देने में हिचकना क्यों '.चाहिये ? क्याः अकर्मण्य होने से.ही तिरागता आ जाती है. ? आदर
और यश कोई बुरी चीज़ नहीं है बुरी चीज तो है इनकी तृष्णा, जिससे इनके लूटने की इच्छा हो जाय इनके लिये संयम - और . सभ्यता का भंग हो जाय, इनके पीछे मनुष्य सत्य की भी पर्वाह न
करे, या जनहित के बदले ये जीवन के मुख्य ध्येय बन जाय । : अयाचित आदर यश मिले तो पाप न हो जायगा, तू कर्म करता : • चल । दुनियाका हित तो 'मान न मान मैं तेरा महमान बनकर ही करना पड़ता है क्यों कि दुनिया के एक मुंह नहीं है । जितने आदमी हैं उतने ही मुँह हैं । व मब तुझ निमन.ण संदं सकत है ? वे समझें भी केस कि त निमन्त्रण दन लायक है । फि. साधारण दुनिया तो उस अवोध बालक सरीखी है जो पढ़ने के डर से गला . है । विद्याका महत्व वह आज नहीं जानता, दुनिया भी ऐसी है, : नई बातों का महत्त्व वह आज नहीं जानती, मुद्धता के कारण उसः में : हटवादिता. होती है. इसलिये वह तिरस्करणीय नहीं दयनीय है ।
इसलिये यश के लिये नहीं, किन्तु जविन कर्मशील है इमलिये . समाजहितकारी कर्म करने के लिये, समाज का ऋण कई गुणा
चुकाने के लिये निर्लिप्त रह कर कर्म कर । : .. : . . .::