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आत्म कथा खैर, दो भीलों के बीच में लटकती हुई पोटली बनकर ही क्यों न हो किसी तरह तीर्थ यात्रा की कीर्ति लूटकर (पुण्य टूटकर नहीं) पहाड़तीर्थ और न्यायतीर्थ की वन्दना करके बनारस आपहुँचा ।
(१५) बनारस में अध्यापक फरवरी १९१९ में कलकत्ता से परीक्षा देकर लौटा तो बनारस ठहर गया और यहीं स्याद्वाद विद्यालय में धर्माध्यापक नियुक्त कर लिया गया । कुछ समय पहिले इस विषयमें पत्र-व्यवहार हो गया था। वेतन ३५) महीना मिला । गरीबी के अंधकार में से निकलने के लिये ३५) रुपयों का प्रकाश पैंतीस मुहरों सा मालूम हुआ ।
एक वर्ष पहिले मैं यहाँ विद्यार्थी था, अधिकांश विद्यार्थी वे ही थे जो गतवर्ष मुझसे नीची वक्षाओं में पढ़ते थे। एक ही विद्यालय में विद्यार्थी की हैसियत से जो साथ -साथ रहे हों वे ऊँची कक्षा के हों या नीची कक्षा के, उनका दावा वावरी का रहता है । फिर उनमें बहुत से विद्यार्थी ऐसे थे जो गतवर्ष तक गोम्मटसार में . मेरे साथ पढ़ते थे अब एक वर्ष बाद में ही उन्हें गोम्मटसार पढ़ाने के लिये नियुक्त हुआ । गतवर्ष मैं धर्माध्यापकजीसे भिड़ ही चुका था इसी कारण वै चले भी गये थे। उन के पक्ष के विद्यार्थी भी मौजूद थे जिन्हें नई परिस्थति के अनुसार मेरा विद्यार्थी बनना था । यह सब विकट परिस्थिति थी जिसका मुझे सामना करना था ।
इसलिये सब से पहिला काम मैंने यह किया कि अध्यापकों के समान गम्भीरता से रहने लगा। सब विद्यार्थियों से प्रेम से व्यवहार करता था, उन पर अपना गुरुत्व दिखाने की कोशिश न करता था,