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बनारस में अध्ययन [९७ लोग उन का मुँह ताका करते थे । एक तो गुरुओं के विषय में स्वाभाविक ही आदर था और फिर वे थे सबसे पुराने और बड़े विद्वान, इसलिये कुछ कहने की किसी में हिम्मत नहीं थी । अन्त में विना पढ़े के समान आकर सब विद्यार्थी एक जगह बैठते और पाठ को समझने की कोशिश करते अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार अर्थ लगाते इस प्रकार मंथन करने पर जो अमृत निकलता उसे पीजाते।
व्याकरणमें मैं बहुत कमजोर था और काव्यका अध्ययन भी नहीं के बराबर था । इस त्रुटि को दूर करने के लिये भी मुझे स्वावलम्बन से काम लेना पड़ा । ऊँची से ऊँची कक्षाओं के काव्य तथा पाठ्यक्रम के बाहर के काव्य अपने ही आप पढ़ने की मैंने कोशिश की । जव समझ में न आता तब इस विषय में होश्यार विद्यार्थियों से या किसी अध्यापक से पूछ लेता । कभी कभी तो इतना अधिक पूछना पड़ता कि बतानेवाला कहने लगता कि जब तुम्हें इतनी भी समझ नहीं है तब अपने आप पढ़ने की कोशिश क्यों करते हो किसी से पढ़ ही क्यों नहीं लेते ?
' 'मैं कहता-अपने आप पढ़ने में जितना विकास होता है उतना दूसरे से पढ़ने में नहीं । अपने आप पढ़ने में सरलता कठिनता का भेद इस प्रकार समझ में आता है कि वह चीज बहुत दिन तक याद रहती है दूसरे से पढ़ने में खाया बहुत जाता है पचाया कम ...
इस प्रकार. काव्य का ज्ञान बढ़ाकर एक दिन संस्कृत में एक लेख लिखा उसमें ग्वब.लम्बे लम्बे समास डाले और उसी विद्यार्थी को. बताया जिसने उलहना.दिया था। वह चकित हो गया, बोला