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________________ २] निरतिवाद दान से जहा थोडी बहुत सुविधा मिलती है यह कल्पना सुन्दर है आदर्श है, चाहने योग्य है। वहां उसमे एक दोष भी है । इससे दीनता और पर कल्पना है और असम्भव है । इससे इतना आलस्य बढ़ता है । दान तो सिर्फ अपाहिजो और ही कहा जा सकता है कि जैन धर्म चरम सीमा सार्वजनिक कार्यों और ऐसी ही सस्थाओ के के साम्यवाद का प्रचार इस दुनिया मे सुखकर लिये उपयोगी है । बेकारो का पेट भरने के उद्देश्य समझता है । से जो दान दिया जायगा उससे लोग आलसी इससे उतरती व्यवस्था मे कुछ लोग साम्प और दीन बनेगे । उनका मनुष्यत्व नष्ट हो जायगा। त्तिक समानता की कल्पना करते है और एक इसलिये आवश्यकता इस बात की है कि सब को तरह से कुटम्ब-व्यवस्था को भी नष्ट कर देना काम और रोटी मिले । आर्थिक समस्या को सुलझान __ चाहते है । प्रत्येक पुरुप हरएक स्त्री का पति हो के लिये हम कौन से पथ से चले इसका निर्णय प्रत्येक स्त्री हरएक पुरुप की पत्नी हो, प्रत्येक बच्चा हमे करना चाहिये । समाज की सन्तान हो, योग्यतानुसार सब लोग साम्यवाद अव्यवहार्य काम करे, गाव भर का एक भोजनालय हो, उप भोग के साधन सब को बराबर मिले और जमीन यूनान मे इस समस्या को हल करने के लिये प्लेटोने प्रयत्न किया था। पर वह प्रयत्न सफल मकान दूकान कारग्वाने आदि सभी सरकारी हो । न हो सका । वह आर्थिक साम्यवाद का आदर्श यह व्यवस्था बडी सुन्दर मालूम होती है रूप था । वह साहित्य की सामग्री बना । इसके ऐसा हो सके और गान्ति रह सके तो वैकुण्ठ बाद इस विपय के आचार्यों मे जिनका नाम ही पृथ्वी पर नजर आने लगे । पर इसे प्राप्त करने विशेप रूप मे लिया जाता है वे है कार्लमार्क्स । के लिये जितने दिन लगेगे उसक सौवे भाग समय इनके विचार अवश्य बहुत अश मे सफल हुए और तक भी यह टिकाई नही जा सकती । मानव मे जो रूस सरीखे पिछडे हुए विशाल देश मे साम्यवादी स्व और स्वकीय का मोह है उसे दूर करना अशक्य शासनपद्धति प्रचलित हुई। है । स्व का सर्प मिटाया नही जा सकता । इस साम्यवाद के नाना रूप है। हर तरह व्यवस्था मे स्व का इतना सघर्प होगा कि उसे की पूर्ण समानता तो असम्भव ही है । जैनियोने रोकने के लिय अकुश लगाना पडेगे और वही से इस प्रकार की समानता की एक कल्पना फिर विपमता शुरू हो जायगी। अवश्य कर रक्खी है पर वह आदर्श मनुष्य आलस्य का पुजारी है । दार्शनिकोने होने पर भी निरी कल्पना है। ऐसा युग न कभी जो मोक्ष की कल्पना की है वह भी अनन्त था न आयेगा जब समाज मे मूर्ख विद्वान का, रोगी आलस्य के सिवाय और कुछ नही है । आज जो नीरोग का, शरीर से ऊँचे नीचे का, अल्पायु एक के बाद एक आविष्कार हो रहे है वे सव दीर्घायु का, निर्बल बलीका, सुन्दर असुन्दर का परिश्रम घटाने, आराम पहुँचाने अर्थात् आलस्य की भेद मिट जाय और सम्पत्ति का कण कण सार्व- उपासना के लिये है । मनुष्यको अगर यह मालूम जनिक हो जाय । शास्य शासक आदि कुछ न हो कि हमको हर हालत मे भर पेट रोटी रहे और परम शान्ति परमानन्द विराजमान हो। मिलेगी ही और अधिक करने से अधिक कुछ मिलने
SR No.010828
Book TitleNirtivad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatya Sandesh Karyalay
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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