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________________ नि र ति वा द प्रारम्भिक धर्म मे इसीलिये दान और त्याग को महत्त्व है उसकी गिनती दश धर्मों में की गई है । अप'अति सर्वत्र वर्जयेत्' अति को सब जगह रिग्रह धर्म माना गया है । जैन और बौद्ध धर्म ने रोकना चाहिये । ससार मे पूर्ण समता का होना असभव है और वर्तमान की विषमता भी सही नहीं परिग्रह को पाप माना है । त्याग और दान की जा सकती । ये दोनो ही अतिवाद है । मार्ग महिमा गाई है । जीवन की आवश्यकताएँ कम से वीच मे है । इन दोनो अतिवादो को छोडकर __कम करके अपना सर्वस्व छोड़ देने का आदर्श मध्यका समन्वयात्मक मार्ग निरतिवाद है । जीवन बतलाया गया है । ईसाई धर्म मे इसीलिये अपना की सभी बातो को लेकर निरतिवाद के अनुसार धन गरीबो को बॉट देने का उपदेश है और यहा विचार किया जा सकता है । परन्तु मुख्यता धन तक कहा गया है कि सुई के छिद्र मे से ऊँट की है | क्योकि इतिहासातीत काल से जगत के निकल जाय तो निकल जाय पर स्वर्ग के द्वार अधिकाश आन्दोलन अर्थ-मूलक रहे है अथवा मे से धनवान नहीं निकल सकता । इसलाम मे उनके किसी कोने मे अर्थ अवश्य रहा है । आज इसीलिये व्याज को हराम बताया गया है । गरीबो तो यह समस्या और भी जटिल है। यन्त्रो ने जहा की सहायता पर जोर दिया है । समान बॅटवारे मानव समाज को हरएक दिशा मे द्रुतगामी बना का तथा परिश्रम करके खाने का विधान है । दिया है वहा आग पीछे का भेद भी विकट कर धर्मों के इस प्रयत्न से मानव जाति ने काफ़ी दिया है । एक तरफ असख्य धनराशि है तो । लाभ उठाया है । पर समस्या हल नहीं हो पाई । दूसरी तरफ पीठ से मिला हुआ पेट है । यह दान की प्रथाने गरीबो को कुछ सहायता दी तथा विपमता इतिहासातीत काल से है पर आज यह त्याग मे सम्पत्ति के अधिकारी बनने का दूसरो विकटाकार धारण कर चुकी है। को अवसर दिया । पर इससे पूर्ण तो क्या पर्याप्त धर्मो ने जहा जीवन मे अनेक समस्याओ को सफलता भी नहीं मिली । और आज तो दान सुलाझाने का प्रयत्न किया है वहाँ अर्थ समस्या और त्याग विकृत और दुर्लभ भी हो गये है इस. को भी हल करने की कोशिश की है। हिन्दू- लिये जटिलता और बढगई है ।
SR No.010828
Book TitleNirtivad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatya Sandesh Karyalay
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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