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श्री आचार्य महाराजकी आज्ञाके, दुवारा दीक्षा नहीं देनी चाहिये. संवेग पक्षके अलावा अन्यके लियेभी जहांतक होसके वहांतक आचार्य महाराजकी आज्ञानुसार ही कार्य करना ठीक है.
इस प्रस्तावको पन्यासश्री दानविजयजीने पेश करते हुए विशेप खुलासेसें कहा कि, जो एकवार दीक्षा छो- : डकर चला गया हो और वह पुनः दीक्षा लेने आवे तो उसके लिये इस अंकुशकी खास जरूरत है. कारणकि, वह मनुष्य किस कारण दुवारा दीक्षा लेता है, यह समझ-. नेकी शक्ति जितनी मोटे पुरुषोमें होती है उतनी सामान्य साधुमें नहीं होती. कदाच दुसरीवारभी दीक्षा लेकर फिर छोड दे ! इसलिये आचार्य महाराजकी सम्मति लेनी चाहिये. .
इस प्रस्तावकी पुष्टि मुनिश्री ललितविजयजीने की थी बाद में यह प्रस्ताव सर्व सम्मतिसे पास किया गया.
प्रस्ताव छठा.
(६) साधुप्रायः मोटे मोटे शहरोंमें और उसमेंभी खासकर गुजरात देशमेही, चतुर्मास करते हैं. परंतु साधुओंके विहारसे अलभ्य लाभ हो, ऐसे स्थलोंमें जैसेकि, मारवाड मेवाड, मालवा, पंजाब, कच्छ, वागड, दक्षिण पूर्व वगैरह देशों साधुआंका जाना थोडा मालूम देता है. साधुओंके न • जान से जैनधर्म पालनेवाले संख्याध अन्यधर्मी हो गये. और