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________________ १७ इस प्रस्तावको पेश करते हुए मुनिश्री विमलविजयजीने खुलासा कियाथा कि, इस प्रस्तावका मतलब यह है कि, किसी दूसरे साधुका चेला नाराज होकर अपने गुरुको या गुरुभाई आदिको छोडकर आया हो उसको कितने एक साधु अपने पास रख लेते हैं ऐसा नहीं होना चाहिये ! कारण कि ऐक्यमें त्रुटि और शिव्यको गुरुकी वेपरवाही होनेका संभव है. आनेवालेके मनमें यूं आ जाता है कि, ओह ! क्या है ! वस ! मैं जिसके साथमें जी चाहेगा उसके साथ जा रहूंगा ! मुझे गुरुकी क्या परवाह है ? इतनाहीं नही ! वलकि, किसी गुन्हा (कसूर ) के होनेवर अगर गुरुने कुछ हित शिक्षा दी हो, तो उसकी हित शिक्षाको उलटी मना, दूसरेके पास जा - कर अवर्णवाद वोल, गुरुकोही झूठा ठहराकर आप सच्चा वननेकी चेष्टा करता है । इसका आपकी प्रीतिभावमें विघ्न डालने के सिवाय, अन्य किंचित् मात्र भी फायदा नजर नहीं आता ! इत्यादि कारणोको लेकर इस नियमके पास होनेकी परम आवश्यकता है. अंत में यह प्रस्ताव सर्वकी संगति के अनुसार पास किया गया. प्रस्ताव पांचवा. ( ५ ) जिसने एक दफा दीक्षा लेकर छोडदीहो उसको विना
SR No.010821
Book TitleMuni Sammelan Vikram Samvat 1969 Year 1912
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Sharma
PublisherHirachand Sancheti tatha Lala Chunilal Duggad
Publication Year1912
Total Pages59
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tithi, Devdravya, & History
File Size3 MB
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