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८ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. बेठेलो दीठो. एनुरूप जोइने ते राजा अत्यंत आनंद पाम्यो. उपमारहित रूपथी विस्मित थइने मनमां तेनी प्रशंसा करवा लाग्यो. आ मुनिनो केवो अद्भुत वर्ण छे ! एजें के, मनोहर रूप छे ! एनी केवी अद्भुत सौम्यता छे! आ केवी विस्मयकारक क्षमानो धरनार छे! आना अंगथी वैराग्यनो केवो उत्तम प्रकाश छे! आनी केवी निर्लोभताजणाय छे! आ संयति के निर्भय नम्रपणुंधरावे छे ! ए भोगथी केवो विरक्त छे ! एम चिंतवतो चिंतवतो, मुदित थतोथतो, स्तुति करतो करतो, धीमेथी चालतो चालतो, प्रदक्षिणा दइ ते मुनिने वंदन करी अति समीप नहीं तेम अति दूर नहीं, एम ते श्रेणिक वेठो. पछी वे हाथनी अंजलि करीने विनयथी तेणे ते मुनिने पूछयु: "हे आर्य! तमे प्रशंसा करवायोग्य एवा तरुण छो! भोगविलासने माटे तमारं वय अनुकूल छे संसारमा नाना प्रकारनां मुख रह्यांछे. ऋतु ऋतुना कामभोग, जल संबंधीना विलास, तेम ज मनोहारिणी स्त्रीओनां मुखवचननुं मधुरं श्रवण छतां ए सघळानो त्याग करीने मुनित्वमां तमे महा उद्यम करो छो एनुं शुं कारण तेमने अनुग्रहथी कहो." राजानां आवां वचन सांभळीने मुनिए कयु: "हे राजा! हुं अनाथ हतो. मने अपूर्व वस्तुनो प्राप्त करावनार, तथा योग्य क्षेमनो करनार,मारापर अनुकंपा आणनार, करुणाथी करीने परम सुखनो देनार एवो मारो कोइ मित्र थयो नहीं. ए कारण मारा अनाथीपणानुं इतुं."