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१५२ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
तेनी श्रद्धा ए पण साधनरुप छे. सर्वज्ञ वचनामृत अकर्म भूमि के केवळ अनार्यभूमिमां मळतां नथी तो पछी मानवदेह शुं उपयोगनो ? ए माटे थइने कर्मभूमि अने तेमां पण आर्यभूमि ए पण साधनरुप छे तच्वनी श्रद्धा उपजवा अने बोध थवा माटे निर्ग्रथ गुरुनी अवश्य छे. द्रव्ये करीने जे कुल मिथ्यात्वी छे, ते कुळमां थयेलो जन्म पण आत्मज्ञान प्राप्तिनी हानि रुपज छे, कारण धर्म मत भेद ए अति दुःखदायक छे. परंपराथी पूर्वजोए गृहण करेलुं जे दर्शन तेमांज
· सत्यभावना वंधाय छे; एथी करीने पण आत्मज्ञान अटके
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छे. ए माटे भलुं कुळ पण जरुरतुं छे. ए सघळां प्राप्त करवा माटे थइने भाग्यशाळी थवुं तेमां सत्पुण्य एटले पुण्यानुबंधी पुण्य इत्यादिक उत्तम साधनो छे. ए द्वितीय साधन भेद को.
३. जो साधन छे तो तेने अनुकुळ देश काळ छे १ ए वीजा भेदनो विचार करीए. भरत, महाविदेह इत्यादि कर्मभूमि अने तेमां पण आर्यभूमि ए देश भावे अनुकुल छे, जिज्ञासु भव्य ! तमे सघळा आ काळे भरतमां छो; अने भारत देश अनुकुल छे, काळभाव प्रमाणे मति अने श्रुत प्राप्त करी शकाय एटली अनुकुळता छे. कारण आ दुषम पंचमकाळमां परमावधि, मनःपर्यव अने केवळ ए पवित्र ज्ञान परंपरा आम्नाय जोतां विच्छेद छे, एटले काळनी परिपूर्ण अनुकुळता नथी.