________________
सुखविषेविचार, भाग ५०
१२५
भावछे. जो के ते बहु अंशे नथी, पण छे; तो त्यां उपाधि पण छे. सर्वसंग परित्याग करवानी मारी संपूर्ण आकांक्षा छे; पण ज्यांसुधी तेम थयुं नथी त्यांसुधी कोइ प्रियजननो वियोग, व्यवहारमां हानि, कुटुंबीनुं दुःख ए थोडे अंशे गण उपाधि आपी के. पोताना देहपर मोत शिवाय पण नाना प्रकारना रोगनो संभव छे. माटे केवळ निद्र्य, बाह्यांभ्यतर परिग्रहनो त्याग, अल्पारंभनो त्याग ए सघळु नयी थयुं त्यांसुधी, हुं मने केवळ मुखी मानतो नवी. हवे आपने तत्त्वनी द्रष्टिए विचारतां मालम पडशे के लक्ष्मी, स्त्री, पुत्र के कुटुंब एवढे मुख नथी. अने एने मुख गणुं तो ज्यारे मारी स्थिति पतित थइ हती त्यारे ए सुख क्यां गयुं हतुं ? जेनो वियोग छे, जे क्षणभंगुर छे अने ज्यां अव्यावाघ पणुं नथी ते संपूर्ण के वास्तविक सुख नथी. एटला माटे थड़ने हुं मने मुखी कही शकतो नथी. हुं बहु विचारी विचारी व्यापार वहिवट करतो हतो, तोपण मारे आरंभोपाधि, अनीति अने लेश पण कपट सेववुं पड्युं नथी, एम तो नयीज. अनेक प्रकारना आरंभ, अने कपट मारे सेववां पट्यां दतां. आप जो धारता होके देवोपासनथी लक्ष्मी प्राप्त करवी, तो ते जो पुण्य नहोय तो कोइ काळे मळनार नथी. पुण्यथी पामेली लक्ष्मीवडे महारंभ, कपट अने मानप्रमुख वधारवां ते महापापनां कारण छे ; पाप नरकंमां नाखेछे, पापथी आत्मा महान् मनुष्यदेह एळे गुमावी दे छे, एकतो जाणे पुण्यने खाइ जयां ; वाकी वळी