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चातुर्याम धर्मका बुद्धद्वारा विकास
चार-आर्यसत्यरूपी प्रज्ञाको जोड़ दिया और उन यामोंको तपश्चर्या 'एवं आत्मवादसे मुक्त कर दिया।
बुद्धन तपश्चर्याका त्याग किया था, इसलिए तपस्वी लोग उन्हें और उनके शिष्योंको विलासी कहते थे। इस सम्बन्धमें दीघनिकायके पासादिकसुत्तमें भगवान् बुद्ध चुन्दसे कहते हैं, “ ऐ चुन्द, अन्य संप्रदायोंके परिव्राजक कहेंगे कि शाक्यपुत्रीय श्रमण मौज उड़ाते हैं । उनसे कहो कि मौज या विलास चार प्रकारके हैं । कोई अज्ञ मनुष्य प्राणियोंको मारकर मौज उड़ाता है, यह पहली मौज हुई । कोई व्यक्ति चोरी करके मौज उड़ाता है, यह दूसरी मौज हुई । कोई व्यक्ति झूठ बोलकर मौज उड़ाता है, यह तीसरी मौज हुई। कोई व्यक्ति उपभोग वस्तुओंका यथेष्ट उपभोग करके मौज उड़ाता है, यह चौथी मौज ( कामसुखल्लिकानुयोग ) हुई। ये चार मौजें हीन, गँवार, पृथक्-जनसेवित, अनार्य एवं अनथकारी हैं।" अर्थात् बुद्धके मतमें चार यामोंका पालन करना ही सच्ची तपस्या है।
इसका प्रमाण बौद्ध या जैन साहित्यमें नहीं मिलता कि पार्श्वनाथ आत्मवादमें पड़ते थे । परंतु बुद्धसमकालीन निर्ग्रन्थोंने आत्माको स्वीकार किया। ऊपर बताया जा चुका है कि तपश्चर्या और चार यामोंके द्वारा पूर्वजन्मके पापकर्मका क्षय करके आत्माको दुःखसे मुक्त करना ही उनका ध्येय था* । इसी पासादिक सुत्तमें भगवान् बुद्धने इसका उत्तर दिया है कि मैं इस आत्मवादमें क्यों नहीं पड़ा। भगवान् कहते हैं, "हे चुन्द, अन्य संप्रदायोंके परिव्राजक पूछेगे कि मृत्युके पश्चात् आत्मा उत्पन्न होता है या नहीं, आदि प्रश्नोंका स्पष्टीकरण श्रमण गोतमने क्यों नहीं किया ? उनसे कहो कि, आयुष्मन्ता, यह हितकारी
* पृष्ठ २९ पर पहली टिप्पणी देखिए ।