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________________ मक्खलि नामका विपर्यास २३ mmmmmmm बुद्ध भगवान्को अभी अभी सम्बोधि प्राप्त हुई थी और पंचवर्गीय भिक्षुओंको उपदेश देनेके हेतुसे वे बनारस जा रहे थे। बुद्ध गया और गयाके बीच उन्हें उपक नामका आजीवक मिला और बोला, “ आयुप्मन् , तुम्हारा मुख प्रफुल्लित दिखाई देता है। तुम्हारा आचार्य कौन है ? " भगवान्ने कहा, “बोधिज्ञान मैंने स्वयं ही प्राप्त किया है, अतः किस आचार्यका नाम मैं बताऊँ ?" उपकने पूछा, "तो क्या तुम अनन्त जिन हो गये हो ?" भगवान्ने कहा, "आस्रवोंका क्षय करके मेरे जैसे लोग जिन होते हैं। पापधर्मपर विजय पानेके कारण मैं जिन हूँ।" इसपर “हो सकता है !" कहकर उपकने सिर हिलाया और वह दूसरे मार्गसे चला गया ।* बुद्ध भगवान्द्वारा लगाया गया जिन शब्दका अर्थ उपकको नहीं अँचा। क्यों कि उसके मनमें कठोर तपश्चर्यासे ही मनुष्य जिन हो सकता था और ऐसे जिन उसीके संप्रदायमें थे। दूसरे संप्रदायोंमें यह कमी थी। इसीसे पार्श्वनाथका संप्रदाय पिछड़ गया और आजीवकोंका आगे बढ़ गया। अतः अपने सम्प्रदायकी रक्षा करनेके लिए महावीर स्वामीको जिनकी उपाधि प्राप्त करनी पड़ी। अर्थात् तपश्चर्याके सब प्रकार सीखनेके लिए वे मक्खलि गोसालके पास पहुँचे हों तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं। इसीलिए उन्हें वस्त्रत्याग करना पड़ा। प्रव्रज्याके समय उनके पास एक ही वस्त्र था। यानी वे एकचेलक निग्रंथों से एक थे। गोसालके साथ रहनेके बाद उन्हें वह वस्त्र छोड़ना पड़ा। वत्र रखकर जिन होना गोसालकी दृष्टिमें असंभव था। महावीर स्वामीने आजीवकोंकी सारी तपश्चर्या की भी, फिर भी वे अपना चातुर्याम धर्म छोड़नेको तैयार नहीं थे । वह धर्म छोड़कर उन्होंने मक्खलिका नियतिवाद स्वीकार किया होता, तो वे भी उस पंथके एक जिन * मज्झिमनिकाय, अरियपरियेसन सुत्त, महावग्ग १।१४।१५ onarmadamamarinewwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwnwarmirm
SR No.010817
Book TitleParshwanath ka Chaturyam Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kosambi, Shripad Joshi
PublisherDharmanand Smarak Trust
Publication Year1957
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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