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________________ चातुर्याम धर्मका उद्गम और प्रचार १७ किया गया है, जिससे यह साबित होता है कि बुद्धके समय तक निर्ग्रन्थ लोग चातुर्याम-धर्मको ही मानते थे। तत्पश्चात् महावीर स्वामीने उन यामोंमें ब्रह्मचर्य व्रतको जोड़ दिया। इसी तरह त्रिपिटकमें इसके लिए भी प्रमाण मिलता है कि निग्रंथ लोग कमसे कम एक वस्त्रका प्रयोग करते थे ।* परंतु इसके लिए कोई आधार नहीं मिलता कि वे अचेलक (नंग्न ) रहते थे। यद्यपि यह जानकारी अधूरी है, फिर भी उसपरसे यह मानना उचित ज्ञात होता है कि पार्श्वनाथ विद्यमान थे और उन्होंने चातुर्याम धर्मका उपदेश दिया था। चातुर्याम धर्मका उद्गम और प्रचार ___ यह चातुर्याम धर्म इस प्रकार है :-सव्वातो पाणातिपातिवाओ वेरमणं, एवं मुसावायाओ वेरमणं, सव्वातो अदिन्नादाणावो वेरमणं, सव्वातो बहिद्धादाणाओ वेरमणं ( स्थानांगसूत्र २६६)- . अर्थात् सभी प्रकारके प्राण-घातसे विरति, उसी प्रकार असत्यसे विरति, सब प्रकारके अदत्तादान ( चोरी ) से विरति और सब प्रकारके बहिर्धा आदान (परिग्रह ) से विरति। इन चार विरतियोंको याम कहते हैं । यहाँ यम धातु दमनके अर्थमें है । इन चार प्रकारोंसे आत्मदमन करना ही चातुर्याम धर्म हैं। उसका उद्गम वेदों या उपनिषदोंसे नहीं बल्कि वेदोंसे पहले इस देशमें प्रचलित तपस्वी ऋषिमुनियोंके तपोधर्मसे हुआ हैं। ये ऋषिमुनि संसारके दुःखों आर मनुष्य मनुष्यके बीच होनेवाले असद्व्यवहारले ऊबकर अरण्यमें चले जाते थे और चार प्रकारकी तपश्चर्या करते थे। उनमेंसे एक तप अहिंसा या दयाका होता था। पानीकी ___ * तविदं भन्ते पूरणेन करसपेन लोहिताभिजाति पञ्चत्ता तिगण्ठा एकसाटका। -अंगुत्तर छक्कनिपात, दुतिय पण्णासक, पठमवग्ग, सुत्त ३६
SR No.010817
Book TitleParshwanath ka Chaturyam Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmanand Kosambi, Shripad Joshi
PublisherDharmanand Smarak Trust
Publication Year1957
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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