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प्रस्तावना
भगवान् बुद्धके समयमें जैनोंको निर्ग्रथ ( निगण्ठ ) कहते थे । त्रिपिटक साहित्यमें इन निर्ग्रथों का उल्लेख अनेक स्थानोंपर हुआ है। उनमें से दो स्थानों पर ' चातुर्यामसंवरसंवुतो विहरति ' ऐसा उल्लख है । बुद्धघोषाचार्य द्वारा इसका गलत अर्थ लगा लिया जानेसे मेरी समझ में यह वाक्य बिलकुल नहीं आया था। नवम्बर सन् १९२२ में मैंने गुजरात विद्यापीठकी सेवा स्वीकार की । वहाँ काम करते समय पण्डित सुखलालजी और पण्डित बेचरदासजी दो सज्जन जैन विद्वानोंसे मेरा अच्छा परिचय हुआ । उन्होंने मुझे उल्लिखित वाक्यका ही नहीं, बल्कि त्रिपिटकमें जैनोंके सम्बन्धमें जो जो बातें हैं उन सबका अर्थ अच्छी तरह समझा दिया। उनसे परिचय न होता तो जैन धर्म के सिद्धान्तों के विषय में मैं आज भी अज्ञानमें ही रहा होता । अतः उनसे जैन धर्मका जो ज्ञान मुझे मिला उसके लिए मैं उनका बहुत आभारी हूँ ।
विशेषतः चातुर्यामका अर्थ मेरी समझमें अच्छी तरह आ गया और तबसे मैं इन यामोंके विषय में सोचने लगा । तब मैंने देखा कि आज जो कुछ श्रमण संस्कृति शेष बची है उसके आदिगुरु पार्श्वनाथ हैं और बुद्धके समान वे भी श्रद्धेय हैं । इस चातुर्यामपर मैंने कुछ स्थानों पर भाषण देकर पार्श्वनाथ के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की । परन्तु साथ ही मेरे मन में यह विचार आने लगा कि ऐसे उज्ज्वल धर्मको वर्तमान बुरी दशा क्यों प्राप्त हो गई ? स्वर्गीय डाक्टर भांडारकरने मुझसे कई बार पूछा कि इतना उन्नत बौद्ध धर्म हिन्दुस्तानमेंसे पूर्णतया नष्ट कैसे हो गया ? जनसाधारण में उसका नाम तक क्यों न रहा ? इस प्रश्नको हल करनेका