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सिद्धान्तों में मौजूद है। जैनोंको ऐसा न समझना चाहिए कि उनका अहिंसा-धर्म कुत्तों बिल्लियोंके प्राण बचाने और आलू-बैंगन न खाने में ही संपूर्ण होता है; बल्कि विश्वव्यापी आर्थिक शोषण, असमानता, अन्याय, और अत्याचारके प्रतिकारमें अहिंसाका प्रयोग कैसे किया जा सकता है और उसे कैसे सफल बनाया जा सकता है, इस कसौटीपर उन्हें अपने अहिंसा धर्मको खरा उतारकर दिखाना होगा । महात्मा गाँधीने यह कर दिखाया, इसीलिए अहिंसा - धर्म संसार में सजीव और प्रतिष्ठित हो गया । धर्मज्ञ लोगों को चाहिए कि वे धर्मकी चर्चाको व्याकरण और तर्कके. शास्त्रार्थमेंसे बाहर निकालकर और क्षुद्र रूढ़ियोंको बचाने की चेष्टा छोड़कर उसे व्यक्ति एवं समाज के समग्र जीवनपर चरितार्थ करके दिखायें । धर्मानन्दजी कोसम्बी द्वारा इस दिशा में किया गया यह पहला ही प्रयत्न है और इसलिए विशेष अभिनंदनीय है ।
धार्मिक साहित्य में
इस निबन्धकी प्रस्तावना में पुराने जमानेके जैनियों का मांसाहारसम्बन्धी उल्लेख आया है। मेरे देखते हुए यह चर्चा गुजरात में तीन बार बड़ी कटुताके साथ हुई है । किसीने यह तो नहीं कहा है कि प्राचीन समयमें सभी जैनी मांसाहार करते थे, पर जैन यह उल्लेख निर्विवाद रूपसे पाया जाता है कि कुछ जैनी मांसाहार करते थे । यह स्वाभाविक है कि आजके धार्मिक लोगोंको इस बातकी चर्चा पसन्द न आए; क्योंकि मांसाहार त्यागके सम्बन्धमें सबसे अधिक आग्रह आजके जैनियोंका ही है और एक समाजकी हैसियत से उन्होंने अच्छी तरह उसका पालन भी कर दिखाया है । यह तो कोई कह नहीं सकता कि मांसाहार धर्म्य है । यह साबित करनेकी चेष्टा भी कोई नहीं करना चाहता कि पशुओं, पक्षियों, बकरियों, मुर्गियों, मछलियों, केंकड़ों आदि प्राणियोंको मारकर अपना पेट भरना कोई महान् कार्य है । इस सम्बन्ध में बहस हो सकती है कि आज ज़माने में सार्वत्रिक मांसाहार त्याग कहाँतक सम्भव है । मानव जातिकी मन्द प्रगतिको देखते हुए आजकी स्थितिमें मांसाहारी लोगोंको घातकी, क्रूर या अधार्मिक कहना उचित नहीं होगा । परन्तु इस विषय में कहीं भी दो मत नहीं हैं कि मांसाहार न करना ही उत्तम धर्म है। प्राचीन
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