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पार्श्वनाथका चातुर्याम धर्म
खिलाई जाय और चींटियोंको चीनी खिलाई जाय ! गाँधीजी जब कहते हैं कि मछलियाँ पकड़कर ग़रीबोंके भोजनमें वृद्धि की जाय, तब इन लोगोंको गाँधीजी बिलकुल दांभिक मालूम होते हैं । यदि कोई कहे कि एक समय जैन भिक्षु मांसाशन करते थे तो ये सज्जन उसे जेल भिजवा - को तैयार हो जाते हैं । यह है आजकलकी अहिंसा !
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परंतु पार्श्वनाथ या बुद्धने ऐसी अहिंसाको बिलकुल महत्त्व नहीं दिया था। मनुष्य के द्वारा मनुष्यकी जो हिंसा होती है, उसे नष्ट करने - का प्रयत्न उन्होंने किया । अर्थात् उनकी अहिंसा प्रथमतः मनुष्य के लिए लागू थी । अगर वैसा न होता तो उन्होंने यज्ञ-यागोंके साथ ही खेतीका भी निषेध किया होता। क्योंकि खेती में प्राणियोंकी जितनी हिंसा होती है उतनी यज्ञोंमें नहीं हो सकती। जैन साधुओंने तो इससे भी आगे जाकर रसोई न पकानेका उपदेश दिया होता; क्योकि रसोई में वनस्पति-काय और अन्य कायोंकी कितनी असीम हत्या होती है ! अहिंसामें सत्य, अस्तेय एवं अपरिग्रहके तीन याम जोड़ दिये जाने से यह सिद्ध होता है कि यह अहिंसा मानव समाजके लिए थी । व्यवहारमें लोगोंको लूटकर चींटियोंको शक्कर खिलाने के लिए वह अहिंसा नहीं थी । जैन और बौद्ध धर्म जब राजाश्रित हुए तब उस अहिंसाका यह विपर्यास हुआ। उसे इस सांप्रदायिकता के चंगुल से छुड़ाकर पुनः कार्यक्षम बनाना ही अहिंसाका सच्चा प्रयोग है ।
सत्य
सत्यके प्रयोगमें हठधर्मी या दुराग्रह नहीं होना चाहिए । पोपका यह निश्चित मत था कि पृथ्वी नहीं घूमती है; इसलिए उसने गैलीलिओको बेहद यंत्रणाएँ दीं । ' इदं सच्च मोघमण्णं ' ( यही सत्य है और बाकी सब झूठ है ) के आग्रहसे ही दुनियामें अनेक लड़ाइयाँ छिड़ी हैं। परन्तु