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वृहत्तरके लिए किसो देशके दो पड़ोसी राज्योंमें पीढ़ियोसे वैमनस्य था। उनमें प्रायः खुलकर लड़ाई भी हो जाती थी और एक राज्यका भू-भाग जीतकर दूसरे में संलग्न कर लिया जाता था।
एक बार ऐसे ही एक बहुत बड़े आक्रमणके अवसरपर एक राज्यको सेनाने दूसरे राज्यको सेनाको उसके प्रधान सेनापति सहित पराजित कर दिया। पराजित सेनाके पाँव उखड़ गये और आक्रान्ता सेनाने उसे उसकी राज्य सीमाके बाहर एक दुर्गम पार्वत्य प्रदेशमे खदेड़ दिया। पराजित सेनापतिने अपने सैनिकों सहित ऊँचे पर्वतकी कन्दराओंमे शरण ली।
कुछ समय पीछे जब आक्रान्ता सेना लौट गई, तब इस सेनापतिने अपना सैन्य दल बटोरकर आक्रान्ता राज्यपर चढ़ाई करनेकी तैयारी की। अपने राज्य और राजाको बचानेकी चिन्ता इसे सबसे अधिक थी और प्राणोंपर खेलकर भी वह अपने कर्तव्यका पालन करना चाहता था।
किन्तु सेनापतिके अधीनस्थ एक छोटे सैन्याधिकारीने उसकी आज्ञा माननेसे इनकार कर दिया। उसने कहा कि छिद्रे हुए राज्य और हारे हुए राजाको बचानेका कोई भी प्रयत्न अब उसका कर्तव्य नहीं है। सेनाके आधे सैनिक इस अधिकारोके कहने में आकर इसके साथ ही रुक गये। विवश हो, आधी सेनाको लेकर ही सेनापतिने आक्रान्ता राज्यपर आक्रमण करनेके लिए प्रस्थान कर दिया।
किन्तु जो होना था वह पहले ही हो चुका था। विजित राजाके राज्यपर विजयी राजाने पूरा अधिकार कर लिया था और राजाको बन्दी बना लिया गया था। इस दूसरे आक्रमणमे यह सेनापति अपनी अवशिष्ट सेनाके साथ मारा गया।