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भव-सागर
एक बड़ी झीलके किनारे बसा एक बहुत बड़ा गाँव था। झीलके उस पार ऊंचे रुपहले पर्वतकी चोटीपर बना एक सोने-सा जगमगाता मन्दिर गाँववालोंको दीख पड़ता था। उनका विश्वास था कि चाँदीके पर्वतपर बना हुआ वह मन्दिर शुद्ध स्वर्णसे देवताओं-द्वारा निर्मित किया गया था और उसमें भगवान् स्वयं निवास करते थे। चाँदीके पर्वतमे असंख्य रत्न यत्र-तत्र जड़े हुए थे और कोई भी वहाँ पहुँच कर उनका मनचाहा संग्रह कर सकता था। उस पर्वतपर दूध और अमृतकी नहरें बहती थीं और त्रैलोक्यकी सबसे बड़ी वैभवशाली हाट भी उसी पर्वतकी तलहटीपर लगती थी, जिसमें इन्द्रलोककी मदिर-लोचना अप्सराएँ विक्रयका कार्य करती थीं।
गाँववाले इस पार खेती करके अपना जीवन-निर्वाह करते थे। अनावृष्टि-अतिवृष्टिके कारण अकाल और महामारियोके प्रकोप भी उन पर समय-समयपर पड़ते थे। वे सभी इस ओरके जीवनसे ऊबे हुए उस पार जानेको लालायित थे। किन्तु उस पार उप्स ऋद्धि-सिद्धि के देशमे पहुँचना और फिर उसकी चोटीपर साक्षात् भगवान्के मन्दिरमे प्रवेश कोई सुगम कार्य नहीं था। इस झीलकी गहराई अज्ञात और इतनी अथाह थी कि कोई जलपोत भी कभी इसपर तैरनेका साहस करता नहीं देखा गया था। गांववालोंकी गणनाके अनुसार इस झीलका पाट भी असंख्य योजनका था। इतना सब होते हुए भी उस पारका वह देश अगणित पीढ़ियोंसे उस देशके निवासियोंका आराध्य बना चला आता था। __ उस पारके कोई-कोई विशालकाय देवता कभी-कभी इन ग्रामवासियों मे-से कुछ विशेष अधिकारी एवम् श्रद्धातुर जनोंको लेनेके लिए आते थे ।