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सुखोंकी दूकान
अपनी कमाईका बहुत-सा धन बचाकर मैं एक बार देश - देशान्तरकी लम्बी यात्राको निकला । उस यात्रा में एक देशके एक बड़े बाजारमे मुझे सबसे अधिक विचित्र एक दूकान दिखाई दी । उस दूकानके फाटकपर लिखा हुआ था-' - 'सुखोंकी दूकान ।'
मैं उस दूकानमे घुसा और ड्योढ़ीके पास ही दुकानदारने मेरा अभिवादन किया । मैने उससे कहा कि मै कुछ सुख खरीदना चाहता हूँ । वह मुझे सुखकी वस्तुएँ दिखाने के लिए सम्मानपूर्वक मेरे आगे-आगे चला ।
अगणित छोटी-बड़ी कोठरियोसे बनी उस दूकान मे सौदेकी कोई वस्तु मुझे दिखाई न दी । कोठरियोंके भीतर कोठरियाँ पार करता हुआ मैं एक ऐसे दालान में पहुँच गया, जहाँ बदबूके मारे मेरी नाक फटने लगी, जी मचलाने लगा और होते-होते दम भी घुटने लगा । मैने दूकानदारसे वापस लौटने की प्रार्थना की ।
'अभी और देखिए हुजूर ।' दुकानवालेने अदब के साथ मुझसे कहा'और ज़्यादा देखनेकी तबीयत न हो तो यह लीजिए 'सुख नम्बर १ ' कहते-कहते अपने हाथमें ली हुई एक छोटी-सी छड़ी उसने मेरे हाथमें थमा दी । छड़ीको छूते ही सारी बदबू, मिचलन और घुटन एकदम जाती रही और मेरे निकले हुए प्राण जैसे एकदम लौट आये । इस संकट मुक्ति पानेपर मुझे जो सुख मिला वह जीवनमें पहले कभी नहीं मिला था ।
इस सुख नम्बर १ को खरीदने के लिए मैंने अपनी पूरी थैली दूकानवालेके हाथमें रख दी, किन्तु वह बड़ा भला आदमी था । उसमें से केवल एक रुपया लेकर शेष मुझे लौटाते हुए उसने कहा