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________________ मेरे कथागुरुका कहना है 'इस सुखकी कीमत तो कुछ भी नहीं। आपका आग्रह है तो मैं एक रुपया ले सकता हूँ वरना बिना दाम भी मैं यह सुख नम्बर १ आपको दे सकता था। एक रुपयेमें सुख नं० १ की वह छड़ी विवरण-पत्र और सेवन-विधिके साथ लेकर मैं घर लौट आया। इस छड़ीका चमत्कार यह था कि उल्टा करके उसे हाथमें लेनेपर मनचाहा कोई भी कष्ट आपको, या जिसे आप यह चमत्कार दिखाना चाहें उसे, तुरन्त ही घेर लेता था और उसी छड़ीको सीधा करके-मूठ ऊपरको रखकर-पकड़ते ही वह कष्ट दूर हो जाता था। कुछ दिन बाद इस सुख नं० १ से मेरा जी भर गया, क्योंकि इसमें कोई वास्तविक सुख न होकर दुःख और दुःखके उतारका ही खेल था और उस उतारको ही सुख समझनेका भ्रम था। इसलिए मैं दूसरी बार सुखोंकी दूकानपर पहुंचा। दुकानदारने अबकी बार मुझे एक शीशी दी, जिसपर लिखा था'सुख नं० २, सुभ्रम रसायन ।' इस शीशीमें एक गाढ़ा-सा पदार्थ था। किसी प्रकारकी भी शारीरिक, मानसिक दुःख-विपत्ति आ पड़नेपर उस पदार्थको सूंघ लेनेपर वह दुःख एकदम गायब हो जाता था और उस दुःखके विपरीत अत्यन्त सुखद और आशाजनक सपने दोखने लगते थे। दूकानदारने अच्छी तरह प्रदर्शन-पूर्वक इस रसायनका चमत्कार मुझे दिखाया और मैने देखा कि इस सुखका उपयोग करनेके लिए अपनी ओरसे किसी प्रकारके दुख-संकटको उत्पन्न या निमन्त्रित करनेकी आवश्यकता नहीं थी। यह वास्तवमें एक कष्ट-निवारक रसायन था। दूकानदारने बड़े संकोचके साथ इस सुख नं० २ का मूल्य पाँच रुपया मुझसे स्वीकार किया। घर लौटकर मैंने इस सुख नं० २ का भरपूर उपयोग किया और अपने मित्रोंका भी इसके लाभमें हिस्सा बटाया। किन्तु कुछ ही दिनों में
SR No.010816
Book TitleMere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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