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________________ ८८ मेरे कथागुरुका कहना है उसने पकड़कर अपनी उदराग्निको शांत करनेका साधन बनाया। पक्षीका स्वाद नया होते हुए भी उसे विशेष प्रिय लगा। इस व्यक्तिका अब यही क्रम चल पड़ा। दिनभर वह निश्चिन्त भाव से धरतीपर विचरण करता और सायंकाल अपने मचानपर पहुँच कर सबसे पहले हाथ लगे पक्षीका आहार करता, यद्यपि उसके शरीरसे टकराने और हाथको पहुँच तक आने वाले पक्षियोंको संख्या सदैव एकसे अधिक ही होती थी। उन पक्षियोंका स्वाद ही नहीं, उनका पोषक तत्त्व भी उसके लिए विशिष्ट प्रमाणित हुआ। प्रतिदिन एक पक्षोका आहार उसके लिए पर्याप्त था। कवीलेके अन्य सभी सदस्योंके साथ उनका पूर्वक्रम ही चलता रहा। वे अपने शयनके पड़ोसी पक्षियोंके जागनेसे पहले वृक्षोंसे उतर जाते और एक पहर रात बीते अपने अधभरे पेट और पारस्परिक संघर्षसे चोट खाये शरीरोंको लिए मचानोंपर चढ़ते। उन्हें यह पता ही नहीं लगा कि उनके लिए विशेष उपयोगी और सहजप्राप्य भोजन प्रचुर मात्रामें उनके इतने समीप था। कुछ इतिहासकार कहते हैं कि वह कबीला कुछ ही वर्षोंमें भूख और पारस्परिक युद्धके कारण नष्ट हो गया और उसका वह पक्षी-भक्षी सदस्य ही हृष्ट-पुष्ट, सहस्र वर्षकी आयु तक जोवित रहा। किन्तु मेरे कथागुरु का कहना है कि उस कबीलेके वंशज ही आज भी सबसे बड़ी संख्यामें भूतलपर छाये हुए, भोजनको खोजमें कठिन संघर्षोंमें रत, मृतप्राय जीवन बिता रहे हैं, और उस नये, प्रचुर मात्रामें निकट-सुलभ आहारको खोज निकालनेवाले व्यक्तिकी अल्पसंख्यक मानस-सन्तति ही संपूर्ण मानव-जाति को भोजनके उस अक्षय भंडारकी ओर आकृष्ट करनेके लिए प्रयत्नशील है। कथागुरुका यह भी संकेत है कि वह प्रथम विहग-भोजी मानव ही
SR No.010816
Book TitleMere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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