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________________ नया द्रष्टा ५ दूसरे ज्योतिषीने हिसाब लगाकर बताया कि वह दण्ड निस्सन्देह डेढ़ सहस्र योजनकी दूरीपर धरतीके भीतर एक सहस्र योजनकी गहराई पर है किन्तु उसके लिए अभियान उत्तरकी ओर नहीं, दक्षिणकी ओर होना चाहिए। शेष ज्योतिषियोंने भी उस दण्डको उतनी ही दूरी और धरतीके भीतर उतनी ही गहराईपर स्थित बताया, किन्तु तीसरंने उसकी दिशा-पूर्व और चौथेने पश्चिम बताई। उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम ! चारों ज्योतिषियोंकी गणनाएँ परस्पर एकदम विपरीत थीं, यद्यपि वे चारों ज्योतिष विद्याके पारंगत विद्वान् थे। राजा अपने विभ्रम और चिन्ताके आवेशमे इन ज्योतिषियोंको कोई कठोर आदेश दे, इसके पूर्व ही एक तरुण, सामान्य स्तरके दरबारीने खड़े होकर कहा___ 'महाराज! इन चारों ज्योतिषियोंकी गणनाएँ ठीक हैं और उनकी पारस्परिक प्रतिकूलतामे इनका दोष नहीं है। खोये हुए राजदण्डकी खोज तनिक भी कठिन या देर साध्य नहीं है।' राजाकी आज्ञा लेकर यह युवक राजदरबारी आगे बढ़ा, राजसिंहासनको थोड़ी दूर स्थानान्तरित कर उसके नीचेकी पृथ्वीके भीतर तीन-चार हाथकी गहराईपर ही वह देव-प्रदत्त दिव्य धातुओंका बना राजदण्ड चमकता हुआ मिल गया। असाधारण सीमाओं तक उपार्जित विद्या और ज्ञानके चक्षुओंसे जो वस्तु अति दूर देखी जाती है वह सहजदर्शी व्यक्तिके लिए अति पास भी हो सकती है। पांव-तलेकी वस्तु दूरदर्शी अनुसंधायकके लिए किस प्रकार दुष्प्राप्य हो जाती है, इस सहज दर्शनका प्रवर्तक उस तरुण राजदरबारीको ही कुछ लोग मानते है। मेरे कथागुरुका कहना है कि उन महाविद् ज्योतिषियोंकी तुलनामें उस साधारण भौगोलिकको ही दर्शन-परम्पराका
SR No.010816
Book TitleMere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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