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मेरे कथागुरुका कहना है लिए अपना रथ भी भेज दिया है । अस्तु, अबकी बार मैं स्वयं न आकर इन्हे ही सेवामें भेज रहा हूँ। अपनी प्रजा मानकर इनके भरण-पोषणका जो भी प्रबन्ध आप करेंगे उसके लिए मैं आपका कृतज्ञ हूँगा। सम्मानकी आवश्यकता मुझे नही है और न इन्हे ही है। अतएव मेरी उपस्थितिको अनावश्यक मानकर, आशा है, आप मेरे अनागमनको क्षमा करेंगे।'
x इस कथापर मेरे कथागुरुकी टिप्पणी है कि वह राजदरबारी जिसने राजाको इस दार्शनिकके बुलानेकी युक्ति बताई थी, सचमुच इसे अच्छी तरह जानता था, वह पहले उस दार्शनिकका गुरु रह चुका था और अब उसका एक समर्थ मित्र और अनुयायी था ।