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________________ ६२ मेरे कथागुरुका कहना है दूसरे वर्गके शिशुओंको विदा करने के लिए काले फूलोंकी मालाएँ पहनानेका आयोजन हो ही रहा था कि मन्दिरके एक तरुण पुरोहितने वहाँ प्रवेश किया । वह कार्य-वश कही वाहर ही अबतक रुक गया था । ग्राह्य वर्गके शिशुओंका निरीक्षण करनेके बाद उसने ध्यान-पूर्वक त्याज्य वर्गके शिशुओंका भी निरीक्षण किया, और तब उसी दूसरे वर्गके एक शिशुको गोदमे उठाते हुए उसने कहा___'इस शिशुमें दुःखदेवके केवल निन्नानबे लक्षण है, पूरे सौ नहीं, इसलिए यह दुःखदेव कदापि नहीं हो सकता। आप लोग इस ऊनशत लक्षणी (निन्नानबे लक्षणों वाले ) के साथ शतलक्षणी (सौ लक्षणों वाले) का-सा व्यवहार क्यों करने जा रहे हैं ?' महामन्दिरके बुद्धिमान् पुरोहित-वर्गने अपने इस तरुण सदस्यको बात का बड़ा उपहास किया, फिर विरोध और उसके निरन्तर हठको भर्त्सना भी की। किन्तु राजाके निर्णयसे, उस तरुण पुरोहितके प्राणोंके मूल्यपर, उस शिशुको रोक लिया गया। उन्चास ताम्रवर्णी शिशुओंको काले फूलोंकी मालाएँ पहना दी गई और उनका स्पर्श पाते ही वे अन्तर्धान हो गये। स्वर्णवर्णी शिशु पीले फूलोंकी मालाओंमें मुसकराते वहाँ रह गये । ताम्रवर्णी उन्चासों दुःखदूतोंके अन्तर्धान होते ही इस पचासवेंका वर्ण एकदम स्वर्णिममे बदलकर जगमगा उठा और उस ताम्रवर्णी माया-चर्मके लुप्त होते ही मुखदूतके सम्पूर्ण सौवों लक्षण उसके शरीरपर झलकने लगे। कतिपय अप्रकाशित शास्त्रों-पुराणोंके टीकाकारोंके अनुसार संसारको सबसे अधिक रहस्यपूर्ण एवं महत्त्वपूर्ण कथा यही है । मेरे कथागुरुका कहना है कि संसारकी प्रगतिके लिए उसमें उन्चास दुःखोंके समक्ष इक्यावन सुखोंका आविर्भाव एक अत्यन्त सार्थक तथ्य है । सुखोंकी सुरक्षाके लिए उनके साथ-साथ दुःखोंका भी अवतरण, सर्वोच्च सुखका दुःखोंके झीने
SR No.010816
Book TitleMere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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