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मेरे कथागुरुका कहना है राजाके हाथों अप्रत्याशित क्षमा पाकर मैने ठीक वैसा ही व्यवहार किया था जैसा उसके हाथों दण्डसे बचनेके लिए करता, यदि उस दण्डसे बचनेकी मुझे तनिक भी आशा पहले होती। मेरे उस व्यवहारमे अन्तर प्रकारका नहीं केवल कुछ क्षणोंके आगे पीछेका ही था।' ___और यहाँपर मेरे कथागुरुका प्रश्न है कि भौतिक या पर-भौतिक सत्ताके सामने मनुष्यके समस्त विनय, श्रद्धा, कृतज्ञता, अश्रुदान, पद-लुण्ठन और आत्म-समर्पणको व्याख्या क्या इस कथामे नहीं है ?