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उपकृतके आँसू
ही महाराज, इन ग्रामवासियोंके आरोपोंपर आप मुझे जो दण्ड देना चाहें दे सकते हैं ।' अभियुक्तने अविचलित स्वरमें कहा।
'और मेरा न्याय यही है कि मैं तुम्हारे सभी अपराधोंको क्षमा करता हूँ और तुम्हें वचन देता हूँ कि तुम अपनी इच्छित आवश्यकताओके लिए जो-जो वस्तुएँ चाहो मुझसे इसी समय माँग सकते हो। वे सब तुम्हें राजकोषसे और राज-शक्ति द्वारा प्राप्त करके दी जायेगी।' ___ वह व्यक्ति कुछ क्षणोंतक मूर्तिवत् स्थिर, अप्रभावित-सा अपने स्थलपर खड़ा रहा; फिर आगे बढ़ा और राजाके पैरोंपर गिरकर फूट-फूटकर बालकोंकी भांति हिचकियाँ ले-लेकर रोने लगा। उस आवेशमें सार्थक शब्द एक भी उसके मुखसे न निकल पाया। लोग इस अप्रत्याशित, असाधारण दृश्यको मन्त्र-मुग्धसे देखते रह गये। सुख, सहानुभूति और आह लादके आंसुओंसे सभीकी आँखें भीग उठीं। __ अगले दिन उस व्यक्तिने मंदिरकी स्वर्णजटित मूर्ति ही नहीं, अपने और पड़ोसके गाँवोंके बहुतसे लोगोंका अपहृत धन भी उन्हें लौटा दिया और अपनी शेष संचित सम्पत्ति दोन-दुखियोंके सहायतार्थ समर्पित करके स्वयं अत्यन्त सादा जीवन बिताने लगा। कहनेकी आवश्यकता नहीं कि मन्दिरकी नर्तकीको भी उसने सम्मानपूर्वक अपने स्थानपर पहुंचा दिया। उसका जीवन-क्रम ही उस घटनाके दिनसे एकदम पलट गया और उसकी साधुताकी चर्चा दूर-दूरतक फैलने लगी । बहुतसे लोग उसके भक्त बन गये ।
एक दिन उसके भक्तोंने उसके जीवनमे घटित उस परिवर्तनकारी असाधारण घटनाके संबन्धमे जिज्ञासा करते हुए कुछ प्रश्न पूछ दिये। उनका उत्तर देते हुए उसने कहा
'उस दिनकी घटनासे मेरे भीतर कोई साधुता-मूलक परिवर्तन नहीं हुआ था और मेरे व्यवहारमें कोई नई परिवर्तन-परक बात नहीं थी।