________________ साधनाका अन्त .176 भीड़ उस पदार्थमें अपना. भी कुछ भाग लगानेके लिए आतुर दौड़ रही है / उसी क्षणकी नीरवतामें मैंने सुना : 'असंख्य वर्षोंके पुरातन एक युगमें मूषक शरीरमें जन्म पाकर तुमने जो कुछ किया था ठीक वही मानव-सुलभ किंचित् परिवर्तित रूपमें इस समय भी कर रहे हो।' अपना प्रगतिशील नर्तन-कीर्तन मैने उसी समय समाप्त कर दिया, किन्तु मैंने देखा, मेरे अनुगामी भक्तजन मेरे बिना भी नर्तन-कीर्तनक उस पथपर बढ़ते ही गये। भक्त-शिरोमणि सन्तके पदसे च्युत होकर ही मैं अपनी उस पुरातन मूषक-गतिसे भी कुछ मुक्त हो पाया हूँ और मेरी संघर्षमयी साधनाओंका भी अन्त निकट आ गया है। कथा कहनेका अधिकार मेरा है और यदि उसे सुन लेनेमें इस समय आपको आपत्ति नहीं हुई तो उसके भीतर एक खन नीचे उतरना भी सम्भवतः किसी समय आप स्वीकार कर लेंगे। मेरे कथा-गुरुका संकेत है कि मनुष्यके ऊंचेसे-ऊँचे आनन्दोल्लासको परिभाषा इस कथामें निरापद - रूपसे खोजी जा सकती है।