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________________ १७० मेरे कथागुरुका कहना है मालिकका हाथ पकड़े उसके द्वारपर पहुँच गया था। अपनी आन्तरिक सफलतापर मैं मन-ही-मन बहुत प्रसन्न था। मुझे विश्वास था कि स्वीकृत देवी-विधानसे आजकी रात यह बूचड़खाना अवश्य ही आगकी लपटोंमें भस्म हो जायेगा। 'मैंने यह बूचड़खाना दिखाने के लिए आपको खास तौरसे इसलिए दावत दी थी कि मैं इसकी आमदनीमे आधा-साझा आपको देना चाहता हूँ। आप एक माने हुए फ़क़ीर हैं और मेरे बुजुर्गोंका यह रवैया रहा है कि अपने कारोबारकी आमदनीका आधा हिस्सा फ़कीरोंको बराबर देते रहे हैं । इस बूचड़खानेका मुनाफ़ा आजकल छह हज़ार रुपया रोज़ानाका है।'. बूचड़खानेका मालिक कह रहा था। छह हजार याती मेरे लिए तीन हजार रुपया प्रतिदिन ! मैं सोचने लगा। घर पहुँचकर अपने मित्र-देवताका मैने फिर आवाहन किया और अपना संचित पूरा तपोबल लगाकर देवताओंके पिछले आदेशको रद्द करा दिया। चौथे वर्ष में नगरका सबसे बड़ा-सरकारको सबसे अधिक आयकर देनेवाला-व्यापारी घोषित किया गया। नगर-सभाने मेरा नाम नागरिकोंके एकसे काटकर दूसरे अति सम्मानित रजिस्टर में लिख दिया था। उसी वर्ष नगरवासियोंने मेरे सम्मानमें एक बड़ा भोज दिया। , मेरा मित्र-देवता भी उसी अवसरपर मुझे अपना अन्तिम प्रणाम देने आया और बोली :.. 'देवताओंने भी तुम्हारा नाम अपने एक रजिस्टरसे काटकर दूसरेमें लिख लिया है; उसके अनुसार यह आवश्यक है कि तुम परलोकमें अपने निर्वाहके लिए यहाँ कमायी हुई सोने-चाँदीकी सम्पत्तिको मृत्युके समय अपने साथ ले आनेकी व्यवस्था भी कर लो।' ।
SR No.010816
Book TitleMere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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