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________________ १६८ मेरे कथागुरुका कहना है उसे कह सुनाया । अपनी पार किरण- दृष्टिसे उन्होंने देखा कि इस धनिक - का हृदय उलूक पक्षीके आकारका था और अन्धकारमे चमकीली मुद्राओंको गिनते-गिनते उसके हृदयकी आँखें सूर्यके सात्त्विक प्रकाशकी अनभ्यस्त और केवल अन्धकारके समय धातुकी तामसिक चमकमें ही कुछ देख सकने की आदी हो गयी थीं । इस पक्षीकी पीठ यद्यपि सवारीके लिए कुछ असुविधाजनक ही थी, पर लक्ष्मीजीके लिए दूसरा कोई अवलम्ब भी नहीं था । इस व्यक्तिको उसको इच्छा भर मुद्राओंके वरदानसे राजी करके लक्ष्मीजीने उसका उलूकाकार हृदय शरीरसे बाहर निकाला, उसके पंखोंको सुँता, और उसकी पीठपर सवार हो गयीं। अपने पंख फड़फड़ाता, धू-धूका अप्रिय रव करता हुआ यह धनिक हृदय लक्ष्मीजीको लिये आकाश में उड़ चला । देव जगत्की नवीनतम गोपनीय विज्ञप्ति यह है कि लक्ष्मीजी अभीतक कैलासधाममें नहीं पहुँचीं और देवदूतोंकी मण्डलियाँ लोक-लोकान्तरोंमे उनकी खोज कर रही है । इस कथा के मानव- पाठकोंके समक्ष इसकी सार्थकता स्पष्ट है । उस धनिकको सन्तति — आजके धनिकोंका एक बड़ा वर्ग - हृदय-हीन इसलिए है कि उसका हृदय लक्ष्मीजीकी सेवामे गया हुआ है; रातके अपने 'उजाले' मे वह जितनी दूर आगे बढ़ता है दिनके 'अन्धकार' में उससे कुछ अधिक ही इधर-उधर भटक जाता है और यही कारण है कि लक्ष्मीजीका भी कोई ठिकाना नहीं रह पाया है । पुराणकारोंने लक्ष्मीके वाहन धनिक हृदय उलूकको सबसे अधिक बुद्धिमान् कहा है, सो वह भी एक तरहसे ठीक ही कहा है-बड़े घरकी बात और बड़ी रानीके वाहनको वे और कुछ कहनेका साहस करते भी कैसे !
SR No.010816
Book TitleMere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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