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________________ लक्ष्मीवाहन पर्वतपर पहुँचा दो। 'मैं गृहस्थ जीवनसे वैराग्य लेकर वहाँ तपस्या करना चाहती हूँ।' लक्ष्मीजीने अपना अभिप्राय बताया । ___ "किन्तु देवी, मै साधारण द्विपाद मानव आपको रातों-रात इतनी दूर कैसे पहुँचा सकता हूँ ! रात-भर मे तो मै कठिनाईसे धरतीके आठ कोस चल पाऊँगा । रातके इस घने अन्धकारमें मुझे कुछ दिखायी भी नही देगाघरमे तो इस दीपकके सहारे अपने दिनका अन्तिम कार्य पूरा कर रहा हूँ।' गृहस्थने कहा। वह एक साधारण कोटिका फिर भी दान-सत्कारके लिए लोक-प्रसिद्ध व्यवसायी था और अपने नियमानुसार दिन-भरकी कमाई रातमे समाप्त करके सोता था; इसके बिना दूसरे दिन धनोपार्जनका वह स्वयंको अधिकारी नहीं मानता था । ___'तुम्हारे चलनेकी चिन्ता तो मैं कर लेती,' लक्ष्मीजीने इस गृहस्थके वक्षमें छिपे उसके हृदयको अपनी आँखोंकी पार-किरण-दृष्टि-एक्स-रेसाइट-से देखते हुए कहा-'तुम्हारे हृदयका आकार कपोत पक्षीका है, जो कि मेरे लिए सुखासनका काम दे सकता है किन्तु उसकी आँखें सूर्यप्रकाशसे भिन्न किसी दूसरे प्रकाशको नही देख सकतीं। रहने दो मै कोई दूसरा वाहन खोजूंगी, तुम्हारे दैनिक पुण्यानुष्ठानमे बाधक होनेका साहस भी मैं नहीं कर सकती।' सारे नगरकी परिक्रमा करनेपर लक्ष्मीजीको एक दूसरा घर भी जागता-खनकता मिल गया। यह एक धनिकका घर था और घरका मालिक द्वार बन्द किये हुए अंधेरे कक्षमे ही अपनी दिन भरको कमायी न्याज-मुद्राओंको गिन रहा था। द्वारपर थपकीकी आहट पाकर उसने घबराकर जल्दी-जल्दी अपनी थैलियोंको बन्द किया और बाहर आकर देखा, लक्ष्मीजी उसके द्वारपर उपस्थित थीं। वह उनके पैरोंपर गिर पड़ा और उनसे विनती करने लगा कि वे उसके घर ही स्थायी रूपसे निवास करें। लक्ष्मीजीने उसके सिरपर अपना वरद हस्त रखा और अपना अभिप्राय
SR No.010816
Book TitleMere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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