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________________ १२८ मेरे कथागुरुका कहना है संयोगवश इस व्यापारीको यात्रा करते समय किसी दुर्घटनासे गहरी चोट आ गई । वह मूच्छित, चिन्नजनक दशामें घर लाया गया। ओषधि-उपचारसे वह होशमें आया। उसे अनुमान हो गया कि वह उसके जीवनको अन्तिम संध्या है। उसने अपने बड़े मुनीमको आज्ञा दी । की लेनदारोंके सभी बिल तुरन्त ही अदा करनेके लिए उसके सामने प्रस्तुत किये जायें। सभी बिलोकी तुरन्त अदायगीको आज्ञापर उसने हस्ताक्षर कर दिये। धीरे-धीरे उसकी चेतना जागृतावस्थासे लुप्त हो चली । जीवन और मृत्युके बीचको चेतनामें पहुंचकर उसने देखा, दो देवदूत हाथमें बिलका एक-एक परचा लिये उसके सम्मुख खड़े थे। उसके संकेतपर पहले देवदूतने आगे बढ़कर अपना बिल प्रस्तुत किया। अपने पिताके चलाये दान और परोपकारके जिस खातेको उसने बन्द कर दिया था, उसके लिए वह अबतक बारह लाख रुपयका ऋणी हो गया था। वह दानका खाता वास्तवमें अधिकांशतः पुराने, पूर्वजन्मके ऋणोंकी अदायगी और स्वल्पांशतः आगेके लिए सुरक्षित बचतका ही खाता था। व्यवसायीको ज्ञात था कि अब उसके अवशिष्ट कोष और सम्पत्तिका मूल्य बारह-चौदह लाखसे अधिक नहीं है, फिर भी इस बारह लाख रुपये के बिलकी अदायगीकी स्वीकृति उसने लिख दी। दूसरा बिल-वाहक देवदूत अब उसके सामने आया। यह दूसरा बिल सात अरब रुपयोंका था-उस शरीरका मूल्य, जिसे उसने जन्मसे लेकर अबतक धारण किया था। इस बिलकी अदायगीका उसके पास कोई साधन नहीं था ! कहते हैं कि संसारका सबसे अधिक ऋणी वह व्यवसायी अभी तक भू और स्वर्गके मध्यवर्ती अन्तरिक्षमें अनशन-पूर्वक निवास कर रहा है ।
SR No.010816
Book TitleMere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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