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________________ १२४ मेरे कथागुरुका कहना है __ आवश्यक आहार और शीतोष्णसे बचावके अभावमें वह दुर्बल होकर रोगग्रस्त हो गया। अब वह अपनी टूटी-सी कुटियामे जा पड़ा। वह अपने चरित्रसे कैसा भी था, पर नगरमे दया और धर्मका अभाव नहीं था; कुछ दयालु-जन उसकी कुटियामें ही उसके भोजनके लिए रोटीपानी और विशेष आवश्यक होनेपर ओषधि भी दे आने लगे। इसी समय नगरका वार्षिक मिलन-पर्व आ गया हो सकता है वह होली जैसा हो कोई त्यौहार हो। यथावसर सारा नगर एक बड़ी सभामे एकत्र हुआ। सभाके मंचपर अनायास ही उपस्थित जनोंने उसी साधुको मंथर गतिसे आते देखा। और मंचपरसे उसका सु-पूर्व परिचित, सुदृढ़, गम्भीर स्वर लोगोंने सुना 'मेरे स्वजनो ! स्थितप्रज्ञ और जीवन्मुक्त पुरुषके बहुतसे लक्षण मैने आप लोगोंको बहुत दिन पहले बताये थे, किन्तु उसके लक्षणोंमेसे एक, जो मैने आपको अभीतक नहीं बताया था, यह भी है कि आप वैसे पुरुषके सम्बन्धमें अपनी सुनी-सीखी धारणाओंकी कसौटीपर उसे कभी भी स्थायी रूपसे परख नहीं सकते, क्योंकि वैसे पुरुषका मापदंड आपकी मानसिक धारणाओंकी सीमामे नहीं, उसके बहुत बाहरकी ही वस्तु है। आपके नगरमे मेरा कार्य आजसे समाप्त होता है और आपको अपना यह अन्तिम संदेश देकर मैं दूसरे नगरको इसी समय प्रस्थान करता हूँ।' ___और लोगोंने देखा, उसका कृशकाय मुख उसकी बहुत पहलेकी-सी अदम्य आभासे दमक रहा था, मंचसे उतरते समय उसकी चालमें एक परम समर्थ सम्राट्की-सी चेष्टा थी और उसके पग नगरकी पश्चिमी सीमापर फैली पर्वत-मालाकी ओर जिस द्रुतगतिसे बढ़ रहे थे वह पहले कभी भी किसी पाँव-पयादे मनुष्यमें नहीं देखी गई थी।
SR No.010816
Book TitleMere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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