________________
६८
अब पांचवें महाव्रत की ५ भावनाओं का वर्णन करते हैंस्पर्शे रसे च गन्धे च रूपे शब्दे च हारिणि । पञ्चस्वपोन्द्रियार्थेषु गाढं गार्ध्यस्य वर्जनम् ॥ ३२ ॥ एतेष्वेवमनोज्ञेषु सर्व्वथा द्वेषवर्जनम् । आकिञ्चन्यव्रतस्यैवं भावनाः पञ्च कीर्तिताः ॥३३॥
अर्थ
मनोहर स्पर्श, रस, गन्ध, रूप शब्द इन पांचों इन्द्रियों के विषयों में अतिगाढ़ आसक्ति का त्याग करना और इन्हीं पांचों इन्द्रियों के बुरे विषयों में सर्वथा द्वेष का त्याग करना. ये आकिंचन्य (अपरिग्रह या निर्ममत्व ) महाव्रत की पांच भावनाएं कही हैं।
करते हैं
योगशास्त्र : प्रथम प्रकाश
व्याख्या
स्पर्श आदि जो विषय मनोज्ञ हों, उन पर राग का त्याग करना चाहिए । इन्द्रियों के प्रतिकूल जो स्पर्शादि-विषय अप्रिय हों, उन पर द्वेष (घृणा) नहीं करे। आसक्तिमान व्यक्ति मनोहर विषयों पर राग और अनिष्ट विषयों पर द्वेष करते हैं । जो मध्यस्थ होता है, उसकी विषयो पर मूर्च्छा नहीं होने से कही पर भी इनसे प्रीति आसक्ति नहीं होती और न अप्रीति ( घृणा होती है। राग के साथ द्वेष अवश्यम्भावी होता है । इसलिए बाद में ग्रहण किया गया है। किचन कहते हैं—बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह को, वह जिसके नहीं है ; वह अकिंचन कहलाता है। आशय यह है कि अकिंचनता का ही दूसरा नाम अपरिग्रह है । वह पंचममहाव्रतरूप है । उसकी यह पांच भावनाएं समझना चाहिए । मूलगुणरूप चारित्र का वर्णन करने के बाद अब उत्तरगुणरूप चारित्र का वर्णन
--
अथवा पञ्चसमिति गुप्तित्रय- पवित्रितम् ।
चारित्र सम्यक्चारित्रमित्याहुर्मु निपुं गवाः ॥३४॥ अर्थ
अथवा पांच समितियों और तीन गुप्तियों से पवित्र बने हुए मुनिपुंगवों के चारित्र को श्री तीर्थंकर देवों ने सम्यक्चारित्र कहा है ।
व्याख्या
समिति का अर्थ है - सम्यक् प्रवृत्ति । अर्थात् पांच प्रकार की चेष्टाओं की तांत्रिक संज्ञा को, अथवा अर्हत्प्रवचनानुसार प्रशस्त चेष्टा को समिनि कहते है । गुप्ति अर्थात् आत्मा का संरक्षण । मुमुक्ष के मन, वचन, काया के योग ( मन, वचन, काया के व्यापार) निग्रह को गुप्ति कहा है। इन पांच समितियों और तीन गुप्तियों से पवित्र साधुओं की चेष्टा को सम्यक्चारित्र कहा है । समिति मम्यक्प्रवृत्ति स्वरूप है और गुप्ति का लक्षण है प्रवृत्ति से निवृत्ति । इन दोनों में इतनी ही विशेषता है ।
अब ममिति और गुप्ति के नाम कहते हैं
ईर्ष्या भाषेषणान-निक्ष पोत्सर्ग-संज्ञिकाः ।
पञ्चाहुः समितीस्तित्रो गुप्तीस्त्रियोगनिग्रहात् ॥ ३५॥