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ब्रह्मचर्य-महावत की दविषगुप्तिरूप पांच भावनाएं बताई गई है कि स्त्री, नपुंसक और पशु जहां रात-दिन रहते हों, ऐसे स्थान का त्याग करना चाहिए । ये जहां आसन लगा कर बैठे हों अथवा उन्होंने जिस बिछौने (संथारे) या तस्त आदि आसनों का उपयोग किया हो, उस पर भी अन्तर्मुहूर्त तक बैठना वर्जित है । अथवा जिस स्थान में रहने पर दीवार, टट्टी या पर्दे के पीछे रहने वाले दम्पति के मोहोत्पादक शब्द सुने जाएं, ऐसे स्थान का ब्रह्मचर्य-भंग की संभावना से त्याग करना चाहिए। यह प्रथम भावना हुई। राग-पूर्वक स्त्रियों के साथ बातें करने अथवा स्त्रीविकथा करने का त्याग करना । स्त्रियों से सम्बन्धित देश, जाति, कुल, वेशभूषा, भाषा, चाल-ढाल, हावभाव, मन, परीक्षा, हास्य, लीला, कटाक्ष, प्रणय-कलह या शृंगार रसवाली बातें भी वायुवेग के समान चित्त-समुद्र में राग और मोह का तूफान पैदा कर देती हैं । अतः इनसे दूर रहना आवश्यक है। यह दूसरी मावना हुई । जिसने साधुदीक्षा या ब्रह्मचर्यव्रत धारण किया हो, उसने पूर्व अवस्था में स्त्री के साथ जो रति-क्रीड़ा, आलिंगन आदि किया हो, उसका स्मरण नहीं करना चाहिए। कदाचित स्मरण हो जाय तो फौरन उसका त्याग करना चाहिए । क्योंकि पूर्व की रतिक्रीड़ा के स्मरण-रूप-ईन्धन से कामाग्नि अधिक प्रदीप्त होती है। अतः इसका त्याग करना चाहिए । यह तीसरी भावना हुई । स्त्रियों के मनोहर, मन में कामाभिलाषा पैदा करने वाले, आकर्षक मुख, नेत्र स्तन, जंघा आदि अंगोपांगों को अपूर्व विस्मयरस की दृष्टि से या विकार की दृष्टि से ताक-ताक कर ग आंखें फाड़ कर नहीं देखना चाहिए ; क्योंकि स्त्रियों के सौन्दर्य एवं लावण्य से युक्त मनोहर अंगोपांगों के देखने से मन चलायमान हो जाता है : जैसे पतंगा दीपशिखा पर गिरने से नष्ट हो जाता है, वैसे ही रागपूर्वक देखने वाला कामाग्नि-शिखा में भस्म हो जाता है । राग-द्वेष-रहित भाव मे यदि देखा जाय तो उसमें कोई दोष नहीं है । कहा भी है-"चा के दृष्टिपथ में आए हुए रूपविषय का न देखना अशक्य है। परन्तु विवेकी पुरुष को उस रूप में राग-रेष नहीं करना चाहिए।" इसी प्रकार अपने शरीर को स्नान, विलेपन, शृंगार आदि से विभूषित करने, सजाने, धूप देने, नख, दांत आदि चमकीले बनाने ; केशों को भलीभांति संवारने या प्रसाधन आदि करने, विविध रूपों से साजसज्जा का, शृंगार-संस्कारित करने का त्याग करना चाहिए । अपवित्र शरीर के संस्कार में मूढ़ बना हुआ मनुष्य उन्मादपूर्ण विचारों से अपनी आत्मा को व्यर्थ ही क्लेश के गर्त में गिराता है । इस प्रकार स्त्रियों के रम्य अंगों की ओर रागपूर्ण दृष्टि करने तथा अपने अंग को शृंगारित करने का त्याग करना चौथी भावना के अन्तर्गत है । इसी प्रकार स्वादिष्ट, वीर्यवर्धक, पुष्टिकारक, मधुर रस-संयुक्त आहार का तथा रसरहित आहार होने पर भी अधिक मात्रा में करने का त्याग करना चाहिए। अर्थात् रूखा-सूखा भोजन भी गले तक ठूस कर नहीं खाना चाहिए । इस तरह ब्रह्मचारी को दोनों प्रकार के आहार का त्याग करना चाहिए । सदा पुष्टिकारक, वीर्यवर्द्धक, स्वादिष्ट, स्निग्ध, रसदार आहार सेवन करने मे, वह शरीर में प्रधान धातु को विशेष पुष्ट करता है और उससे वेदोदय जाग्रत होता है; जिसके कारण अब्रह्मचर्य-सेवन की संभावना रहती है। अधिक मात्रा में भोजन करने से ब्रह्मचर्य का ही नाश नहीं होता, अपितु शरीर की भी हानि होती है। शरीर में भी अजीर्ण, आदि अनेक रोग पैदा हो जाते हैं । इसलिए इसका त्याग करना चाहिए। आयुर्वेद-शास्त्र में कहा है कि मनुष्य को पेट में आधा हिस्सा व्यंजन (साग) सहित भोजन के लिए, दो हिस्से पानी के लिए और छठा हिस्सा वायु-संचार के लिए रखना चाहिए। इस प्रकार पांचवीं भावना हुई। इस तरह दस प्रकार की ब्रह्मचर्य-गुप्ति का समावेश करके ब्रह्मचर्य की पांचों भावनाएं बताई गई है।