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हृदय में मन को स्थिर करने से लाभ और पार मंडलों का स्वरूप
अर्थ-हवयकमल में मन को रोकने से अविद्या (अज्ञान या मिथ्यात्व) का विनाश हो जाता है; इन्द्रिय-विषयों की अभिलाषा भी नष्ट हो जाती है, संकल्प-विकल्प चले जाते है और आत्मा में ज्ञान को वृद्धि होती है।
मन और पवन को हृदय में स्थिर करने से स्वरूप ज्ञान प्रकट होता है
क्व मण्डले गतियोः संक्रमः क्व क्व विश्रमः?
का च नाडीति जानीयात, तत्र चित्ते स्थिरीकृते ॥४१॥
अर्थ-हृदय-कमल में मन को स्थिर करने पर वायु की गति किस मंडल में है?, उसका किस तत्व में संक्रम (प्रवेश) होता है ? वह कहाँ जाकर विधाम पाता है ?, और इस समय कौन-सी नाड़ी चल रही है ? यह माना जा सकता है। अब मण्डलों का निर्देश करते हैं
मण्डलानि च चत्वारि, नासिकाविवरे विदुः ।
भौमवारुणवायव्याग्नेयाख्यानि यथोतरम् ॥४२॥ अर्थ-नासिका के विवर में चार मंडल होते हैं-(१) भौम (पार्थिव) मण्डल, (२) वारण मण्डल, (३) वायव्य मंडल, और (४) आग्नेय मंडल जानना। पार्थिव मण्डल का स्वरूप कहते हैं
पृथिवीबोजसंपूर्ण, बज्रलाञ्छनसंयुतम् ।
चतुरस्त्र तप्तस्वर्णप्रमं स्याद् भौममण्डलम् ॥४३॥ अर्थ-पार्थिव मण्डल पृथ्वी के बीज से परिपूर्ण, वन के चिह्न से युक्त, चौरस और तपाये हुए सोने के रंगवाला क्षितिलक्षणयुक्त होता है।
यहाँ पार्थिवबीज 'अ' अक्षर है। कितने ही आचार्यों ने 'ल' और 'क्ष' भी माना है। अब वारुणमंडल का स्वरूप कहते हैं
स्था चन्द्रसंस्थान, वारूणाक्षरलाञ्छितम् ।
चन्द्राभममृतस्यन्दं सान्द्र वारुणमण्डलम् ॥४४॥ अर्थ- अष्टमी के अर्ध-चन्द्र के समान आकार वाला, वारण अक्षर ''कार के चिह्न से युक्त, चन्द्रसदृश उज्ज्वल और अमृत के मरने से व्याप्त वारणमण्डल होता है।
बब वायव्य मण्डल का स्वरूप कहते हैं
स्निग्धाञ्जनघनच्छायं, सुवृत्तं बिन्दुसंकुलम् ।
दुर्लक्ष्यं पवनाकान्तं, चंचलं वायुमण्डलम् ॥४५॥
अर्थ-स्निग्धमिश्रित अंजन और मेघ के समान गाढ़, श्याम कान्तिवाला, गोलाकार, बिन्दु के चिह्न से व्याप्त, मुश्किल से मालूम होने वाला, चारों ओर पवन से वेष्टित, पवनबीज 'य' कार से घिरा हुआ चंवल वायुमण्डल होता है।