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योगशास्त्र : पंचम प्रकाशं
धारण करने से रोग और वृद्धावस्था का नाश होता है, वृद्धावस्था में भी शरीर में युवक के समान स्फूर्ति रहती है। कंठ में वायु धारण करने से भूख-प्यास नहीं लगती और यदि क्षुधापिपासा लगी हो तो शान्त हो जाती है। जीभ के अग्रभाग में वायु धारण करने से सर्वप्रकार का रसज्ञान होता है, नासिका के अग्रभाग में वायु को धारण करने से गन्ध का ज्ञान होता है, और चक्ष में धारण करने से रूपज्ञान होता है । कपाल-मस्तिष्क में वायु को धारण करने से मस्तिष्क सम्बन्धी रोगों का नाश होता है तथा क्रोध का उपशमन होता है, और ब्रह्मरन्ध में वायु को रोकने से साक्षात् सिद्धों के दर्शन होते हैं।
धारणा का उपसंहार करके पवन की चेष्टा का वर्णन करते हैं
अभ्यस्य धारणामेवं सिद्धीनां कारणं परम् । चेष्टितं पवमानस्य जानीयाद् गतसंशयः ॥ ३६॥
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अर्थ- - धारणा सिद्धियों का परम कारणरूप है। उसका इस प्रकार अभ्यास करके निःशंक हो कर पवन की चेष्टा को जानने का प्रयत्न करे ।
इससे बहुत-सी सामान्य सिद्धियाँ प्राप्त होती है । वह इस प्रकार है
नामेनिष्क्रामतश्चारं हृन्मध्ये नयतो गतिम् ।
तिष्ठतो द्वादशान्ते तु विद्यात्स्थान नभस्तवः ॥ ३७॥
अर्थ - नाभि से पवन का निकलना, 'चार' कहलाता है। हृदय के मध्य में ले जाने 'गति' होती है और ब्रह्मरन्ध में रहना वायु का 'स्थान' समझना चाहिए ।
अब चार आदि ज्ञान का फल कहते हैं
तच्चार-गमन-स्थान
ज्ञानादभ्यासयोगतः । शुभाशुभफलोदयम् ॥३८॥
जानीयात् कालमायुश्च
अर्थ-उस वायु के चार, गमन और स्थान के ज्ञान का अभ्यास करने से काल
( मरण), आयु-जीवन ओर शुभाशुभ फलोदय को जाना जा सकता है ।
इसे यथास्थान आगे कहेंगे। इसके बाद करने योग्य कहते हैं
इसका फल कहते हैं
ततः शनैः समाकृष्य, पवनेन समं मनः । योगी वयपद्मान्तावनिवेश्य नियन्त्रयेत् ।। ३९ ।।
अर्थ - उसके बाद योगी धीरे-धीरे पवन के साथ मन को खींच कर उसे हृदय-कमल अन्दर प्रवेश कराके उसका निरोध करे ।
ततोऽविद्या विलीयन्ते, विषयेच्छा विनश्यति । विकल्पा विनिवर्तन्ते, ज्ञानमन्ते ॥४०॥