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योगशास्त्र: प्रथम प्रकाश
के साथ चलते-चलते सिन्धु और गंगा का अन्तर दूर-सा करके वापस घूमे । और क्रमशः बताठ्य-पर्वत के उत्तर की तलहटी के पास पहुंचे। वहां संन्य-परिवार ने स्वस्थ हो कर डेरा जमा दिया। कुछ ही दिनों बाद उन्होने वहां के राज्याधिप विद्याधरों से अपने स्वामी का दण्ड मांगने हेतु वाण भेजा । दण्ड मांगने की बात से कुपित होकर दोनों विद्याधर वैताठ्य पर्वत के नीचे उतर कर अपने सैन्य के साथ भरनेश से युद्ध करने आए। उस समय भरत ने देखा कि विद्याधरसैन्य द्वारा मणिरत्न-निर्मित विमानों मे लोो जाते हुए प्रक्षेपणास्त्रों से विद्युन्मय बना हुआ आकाश अनेक सूर्यों का-सा प्रकाशमान एव प्रचण्ड ददाभनाद से मेघगर्जनामय हो रहा है। साथ ही उन्होंने भारत को यद के लिये ललकारा -"अय दण्डार्थी! अगर हमसे दण्ड लेना है, तो, आ जाओ मैदान में ।" अपनी विशाल मेना युद्ध में झोंक कर भरतेश ने भी उनके साथ एक साथ विविध युद्ध किए। युद्ध किये बिना जयश्री प्राप्त नहीं होती। आखिर १२ वर्ष तक युद्ध करने के बाद विद्याधरपति नमि-विनमि हार गये। अपनी पराजय के बाद वे हाथ जोड़ कर नमस्कार करके भरतराजा से कहने लगे-'जैसे सूर्य से बढ़ कर कोई तेजस्वी नहीं होना. वायु से बढ़ कर कोई वेगवान नहीं होता; मोक्ष से अधिक सुख कही भी नहीं होता। इसी प्रकार आग मे बढ़ कर और कौन शूरवीर है ? हे भरतनरेश | आज आपको देख कर हमे साक्षात् ऋषभदेव भगवान् के ही मानो दर्शन हो गये हैं। स्वामिन् ! अज्ञानता से हमने आपके साथ युद्ध किया। उसके लिए हमें क्षमा कीजिए। अब आ। को आज्ञा मुकुट के समान हमारे सिर-माथे पर होगी। यह धन, मद्वार, शरीर, पुत्र आदि सब आपका ही है। इस तरह भक्तिपूर्ण वचन कह कर अतिविनयी विनाम ने अपनी पुत्री (स्त्रीरत्न) और नमि ने रत्नराशि अपित की और आज्ञा ल कर दोनों ने अपने पुत्रों को गज्याभिषिक्त करके वैराग्यभाव से भगवान ऋपभदेव के पास जा कर दीक्षा अगीकार का ।
उसके बाद चक्ररत्न का अनुसरण करते हुए चलते-चलते वे गंगानदी के तट पर आए । सेनापति मपंण ने गंगानटवर्ती उत्तर प्रदेश जीत लिया। महान् आत्मा के लिए कौन-सी बान असाध्य है ? राजा ने अट्टम तप कर गंगादेवी की आराधना की, देवी ने भी दिव्य भेंट प्रस्तुत कर भरत का सत्कार विया । माग गंगानट कमल की सुगन्ध से महक रहा था। भरतेश ने गंगातट पर ही अपने महल कामा गटभवन बनवाया और वहाँ निवास करने लगा। भग्न का कामदेव-सा रूपलावण्य देख कर गंगानदी को गेमाच हो उठा। मगैनिक आभूपणों एव केले के अंदर की पतली झिल्ली के समान बारीक वस्त्रों में मुग्जिन हो कर चन्द्रमुखी गंगादेवी भरनेश के पास पहुंची। जलप्रवाहमय विचित्र रूप धारण करके अगविन्याम एवं हावभाव करती हुई गंगादेवी ने नरेश से प्रेमगद्गद् स्वर में प्रार्थना की। तत्पश्चात् काम-क्रीड़ा करने की अभिलाषा से वह उन्हें अपने भवन में ले गई। वहां भरतनरेश के साथ विविध भोग-विलाम में चांदी से दिन और सोने-सी राने कटने लगीं। एक हजार वर्ष एक दिन के समान प्रतीत होते थे। जैसे हाथी एक वन से दूसरे वन में जाता है, वैसे ही भरतराजा गगादेवी से विदा ले कर
डात गुफा में पहुंचा। वहां पर भी कृनमालयक्ष की तरह अट ठम तप करके नाट्यमाल की आगधना को और उमी तरह उसका आठ दिन का महोत्सव किया। फिर सुषेण सेनापति द्वार का कपाट खोल कर उस गुफा में प्रविष्ट हुए। अत: दक्षिण का द्वार अपने आप खुल गया। उस गुफा के मध्य-माग में से भरत चकवी ऐगे ही बाहर निकले जसे केसरीमिह निकला हो। उन्होंने गंगा के पश्चिम तट पर सेना का पड़ाव डाला। जिस समय चक्रवर्ती गंगा के किनारे पहुंचा। उस समय नागकमारदेव द्वारा अधिष्ठित नौ निधियां प्रकट हो कर कहने लगी-'हे महाभाग ! गंगा के मुहाने पर मागधदेश में हम रहती हैं और आपके भाग्य मे आकृष्ट हो कर हम यहां आपके पास आई हैं।