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भरतचक्रवर्ती के द्वारा षट्खण्डविजय रहित होकर खुल गया है । यह सुनते ही ऐरावण-हाथी पर इन्द्र की तरह भरतनरेश गंधहस्ती पर सवार हुए और गुफाद्वार की ओर चले। राजा ने गुफा के अन्धकार को दूर करने के लिये पूर्वाचल पर सूर्य के समान, हाथी के दाहिने कुभस्थल पर मणिरत्न रखा और उसके प्रकाश में एक एक योजन तक दोनों तरफ देखते हुए बादलों में सूर्य की तरह भरतनगेश भी गुफा में प्रवेश कर रहे थे। उनके पीछे-पीछे सेना चल
थी और आगे-आगे चल रहा था-चक्र । भरतेश के सेवकों ने गुफा में अंधकार-निवारण के लिए एकएक योजन पर दोनों तरफ गोमूत्रिका के आकार वाले मण्डल काकिणीरत्न से आलेखित किए, जो सूर्यमंडल के समान उद्योत करते थे। इस प्रकार से प्रकाशमान ४६ मण्डलों के प्रकाश से चक्रवर्ती भरत की सेना सुखपूर्वक आगे बढ़ रही थी। रास्ते में गुफा में राजा ने उन्मन्ना और निमन्ना नाम की दो नदियाँ देखीं। जिनमें से एक नदी में पत्थर भी तैर रहा था ; जबकि दूमरी नदी में तूबा भी डूब रहा था। अतिकठिनता से पार कर सकने योग्य नदियों को उन्होंने वर्द्ध की-रत्न से पैदल चलने योग्य पगडंडी नदी में बना कर दोनों नदिया पार की ; और गुफा से इस प्रकार बाहर निकले जैसे महामेघमंडल से सूर्य निकलता है। वहां से भरतेश ने भरतक्षेत्र के उत्तराखंड में प्रवेश किया। जैसे इन्द्र दानवों के साथ युद्ध करता है, वैसे ही भरतेश ने वहां म्लेच्छों के साथ युद्ध करके उन्हें पराजित किया। म्लेच्छों ने भरतचक्रवर्ती को जीतने के उद्देश्य में मेघकुमार आदि अपने कुल-देवताओं की उपासना की। उसके प्रभाव से प्रलय-काल के समान चारों तरफ मूसलधार वृष्टि होने लगी। भरत-महाराजा ने उससे बचाव के लिए नीचे बारह योजन तक चर्मरत्न बिछा दिया और उसके ऊपर रखवाया छत्ररत्न ; उसके बीच में अपनी सेना रखी । वहाँ अन्धड़ मे हुए महा-अन्धकार को नष्ट करने के लिये पूर्वाचल पर सूर्य के समान छत्रदंड पर मणिरत्न रखवाया ! चम-रत्न और छत्ररत्न दोनों रत्न-संपुट तैरते हुए अंडे के समान प्रतीत हो रहे थे ; लोक में ब्रह्मांड की कल्पना भी शायद इसी कारण प्रारम्भ हुई हो। भरतचक्रवर्ती के पास गृहपतिरत्न एक ऐसा था, जिसके प्रभाव से सुबह बोया हुआ अनाज शाम को ऊग कर तैयार हो जाता था। इस कारण भरतचक्रवर्ती अपने काफिले के प्रत्येक व्यक्ति को भोजन मुहैया कर देता था। इधर वर्षा करते-करते थक कर म्लेच्छों के दुष्ट देवता मेघकुमार ने उनसे कहा-- यह भरत जैसे नहीं जीत सकते।' मेषकमार की इस बात से निराश हो कर म्लेच्छ लोग भरतेश की शरण में आए । सच है, अग्नि से प्रज्वलित के लिए अग्नि ही महौषधि होती है। उसके बाद योगी जैसे संसार को जीत लेता, है वैसे ही सिन्धुनदी से उत्तर में स्थित अजेय निष्कुट को स्वामी की आज्ञा से सेना ने जीत लिया। ऐरावत हाथी के समान मस्ती से प्रयाण करते हुए भरतेश क्षुद्रहिमवान पर्वत को दक्षिण तलहटी पहुचा। वहाँ क्षुद्रहिमवत्कुमार देव के उद्देश्य से उन्होंने अट्ठम तप किया। 'तप कार्यसिद्धि का प्रथम मंगल है।' नृपशिरोमणि भरत ने अपने अट्ठमतप के पश्चात् हिमवान् पर्वत जा कर अपने रथ पर बैठे बैठे ही रथ के अन्तिम छोर से पर्वत पर तीन बार ताड़ना की। और पर्वत-शिखर पर ७२ योजन दूर स्वनामांकित वाण छोड़ा। वाण को देखते ही हिमवत्कुमार भरतेश के सामने स्वयं उपस्थित हुआ। उनकी आज्ञा मुकुट के समान शिरोधार्य की। फिर ऋषभपुत्र भरतेश ऋषभकूट पर्वत पहुंचे और निकट जा कर ऐरावत हाथी के दन्तशूल की तरह रथ के अन्तिम छोर से तीन बार द्वार खटखटाया ; और उस पर्वत के पर्व के बीच में काकिणीरत्न से लिखा- "मैं अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे के अन्तिम भाग में उत्पन्न भारत का भरतचक्रवर्ती हूं । तत्पश्चात् वहां से लौट कर अपनी छावनी में आ कर भरतेश ने अट्ठम तप का पारणा किया । फिर वक्रवर्ती ने अपनी सम्पत्ति के अनुरूप क्षुद्र हिमवत्कुमार देव के आश्रित मठाई महोत्सव किया। उसके बाद चक्रवर्ती भरत अपने चक्र के मार्ग का अनुसरण करते हुए महासेना