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योगशास्त्र : चतुर्ष प्रकार फल, पत्ते आदि बढ़ते हैं। क्षमा प्रशान्त-वादितारूप चित्त की परिणति है। उसे क्यारी का रूप देने से नये-नये प्रशम-परिणाम उत्पन्न होते हैं । इस विषय के श्लोकों का भावार्थ प्रस्तुत करते हैं -
"बामतौर पर अपकारी मनुष्यों पर क्रोध का रोकना अशक्य है, इसके विपरीत अपनी सहनशक्ति के प्रभाव से अथवा किसी प्रकार की भावना से क्रोध रोका जा सकता है। जो अपने पाप को स्वीकार करके मुझे पीड़ा देना चाहता है ; वह बेचारा अपने कर्मों का ही मारा है, कौन ऐसा मूर्ख होगा जो उस मनुष्य पर क्रोध करेगा? कोई नही ! 'मैं अपकारी पर क्रोध करू" इस प्रकार के परिणाम यदि तेरे मन में जागृत होते हैं, तो फिर तू दुःख के कारणरूप अपने कर्मों पर क्रोध क्यों नहीं करता? कुत्ता ढेला फेंकने वाले को न काट कर, ढले को काटने जाता है, जबकि सिंह बाण की ओर दृष्टि किए बिना ही बाण फेंकने वाले को पकडने जाता है। आत्मार्थी क्रूरकर्मों से प्रेग्नि व्यक्ति पर क्रोध नहीं करता ; अपितु अपने कर्मों पर ही करता है ; जबकि साधारण मनुष्य कर्मों पर क्रोध करने की अपेक्षा दूसरे (निमित्त) पर क्रोध करता है। कुत्ते के समान दूसरो को भौंकने या बोलने से क्या लाभ ? अपने कर्मों को कोस, उन्हें ही डांट । सुनते हैं कि-'श्रमण भगवान महावीर स्वामी कर्मों को क्षय करने की इच्छा से चला कर म्लेच्छदेश में गये थे, तो फिर अनायासप्राप्त हुई क्षमा क्यों नहीं धारण करना चाहते ? तीन जगत् का प्रलय अथवा रक्षण करने में समर्थ प्रभु ने यदि क्षमा रखी थी तो फिर केले के समान अल्पसत्व तेरे सरीखे व्यक्ति क्षमा क्यों नहीं रख सकते ? इस प्रकार अनायास प्राप्त पुण्य क्यो नहीं कमा लेते, ताकि कोई भी तुम्हे पीड़ा न दे सके । अब तो अपने प्रमाद की निदा करते हुए क्षमा को स्वीकार करो । क्रोध में अन्धे बने हुए मुनि में और क्रोध करने वाले चांडाल में कोई अन्त र नही है । इस कारण क्रोध का त्याग कर उज्ज्वल बुद्धि की स्थलीरूप क्षमा का सेवन करना चाहिए। एक और क्रोध करने वाले महातपस्वी महामुनि थे, दूसरी ओर केवल नवकारसी का पच्चक्खाण करते थे; क्रोधहित कूरगडडुक मुनि । परन्तु देवताओं ने महामुनि को छोड कर कूरगड्डक मुनि को वंदन किया था। शास्त्रदृष्टि से कलुषित मर्मस्पर्शी वचनों को सुन कर दुःखी होने के बजाय यह विचार करो कि - 'कहने वाला यदि मुझे सत्य कहता है, तो उस पर कोप क्यों किया जाय ? यदि वह झूठ बोलता है तो उन्हें उन्मत्त (पागल) के वचन मान लिये जांय ! यदि कोई वध करने के लिए आता है तो मुस्करा कर उमकी ओर देखे कि वध तो मेरे कमों से होने वाला है, यह मूखं वृथा ही नृत्य करता है। यदि मारने आये तो अपने मन में ऐमा विचार करे कि- 'मेरा आयुष्यकर्म पूर्ण होने पर ही मेरी मृत्यु होगी। या ऐसा विचार करे कि --'यदि मेरे पाप नही होते तो यह बेचारा मुझे क्यों मारने आता? सभी पुरुषार्थों के हरणकर्ता श्रोध पर तो तू क्रोध नहीं करता, तो फिर अला अपराध करने वाले दूसरे पर तू इतना क्रोधित क्यों होता है ? इसलिए धिक्कार है तुझे । सभी इन्द्रियों को शिथिल करने वाले उग्र सपं के समान आगे बढ़त हुए क्रोध को जीतने के लिए बुद्धिमान सपेर की विद्या के समान लगातार निर्दोष क्षमा धारण करे।' अब मान-कषाय का स्वरूप कहते हैं
विनय-श्रुत-शोलानां त्रिवर्गस्य च घातकः ।
विवेक-लोचनं लुम्पन, मानोऽन्धकरणो नृणाम् ।।१२॥ अर्थ-मान विनय का, श्रुत का, और शील-सदाचार का घातक है तथा धर्म, अर्थ और काम तीनों का घातक है। मान मनुष्यों के विवेकरूपी चक्ष को नष्ट करके अन्धा बना देता है।