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________________ पौषधव्रत एवं अतिथिसंविभागवत के पांच-पांच अतिचारों पर विवेचन ३२३ अतिचार केवल दिशासम्बन्धी ही सुना जाता है, दूसरे व्रतों के संक्षेपीकरण सम्बन्धी अतिचार नहीं सुना जाता ; तो फिर सर्वव्रतों का संक्षेपरूप देशावकाशिक व्रत है; ऐसा वृद्धमुनियों ने किस तरह माना है ? इसका समाधान करते हैं कि यह व्रत प्राणातिपात आदि दूसरे व्रतों का संक्षेप-रूप व्रत है। इस व्रत में भी वध, बन्धन आदि अतिचार जानने चाहिए। तात्पर्य यह है कि दिग्वन को संक्षेप करने का अभिप्राय क्षेत्र की मर्यादा को संक्षिप्त करने से है ; प्रेषण आनयन आदि अलग अतिचार संभव होते हैं । इसलिए दिग्व्रत-संक्षेप को ही देशावकाशिक व्रत कहा है। अब पौषधव्रत के अतिचार कहते हैं उत्सर्गादानसंस्ताराननवेक्ष्याप्रमृज्य च । अनादरः स्मृत्यानुपस्थापनं चेति पोषधे ॥११७॥ अर्थ-पौषधवत में देखे या प्रमार्जन किये बिना परठना, उसी तरह अयतना से वस्तु ग्रहण करना या रखना, अयतना से आसन बिछाना, पौषध का अनादर करना या स्मरण नहीं रखना ; ये पौषधवत के पाँच अतिचार है। व्याख्या - पौषध में लघनीति, बड़ीनीति, थूक, कफ आदि जिस स्थान पर परठना हो, वह स्थान आंखों से अच्छी तरह देख-भाल कर वस्त्र के अंचल से पूजनी से प्रमार्जन (पूज) करके बाद में यतनापूर्वक परिष्ठापन करे । अर्थान् विवेक से शरीर के उक्त विकृत पुद्गलों को छोड़े। ऐसा नहीं करने से पोपधव्रत का प्रथम अतिचार लगता है। आदान का अर्थ है ग्रहण करना। लकड़ी, पट्टा, तख्त, आदि उपयोगी वस्तु को बिना देखे, प्रमार्जन किए वर्गर लेने-रखने से दूसरा अतिचार लगता है। तथा दर्भ, कुश, कबल, वस्त्रादि संथारा (बिछोना) करे, तब देखे या पूजे बिना बिछाये, तो अप्रत्युप्रेक्षण और अप्रमार्जन नाम का तीसरा अतिचार लगता है । यह अतिचार देखे बिना लापरवाही से, शीघ्रता से, उपयोगशून्यतापूर्वक दखने पूजने रो, जैसे-तैसे प्रमार्जन-प्रतिलेखन करने से लगता है। प्रमार्जन और अवेक्षण शब्द के पूर्व निषेधार्थ सूचक 'ना' समास का अकार पड़ा है। वह कुत्सा के अर्थ में होने म जसे कुत्सिन ब्राह्मण को अब्राह्मण कहा जाता है, वैसे ही यहाँ समझ लेना चाहिए । मूल आगम श्रीउपासकदशांगमूत्र में यही बात कही है कि अप्रतिलिखित-दुष्प्रतिलिखित-शय्या-संथारा, अप्रमाजित - दुष्प्रमाजित-शव्या-संथारा ; अप्रतिलिखित-दुष्प्रतिलिखित-स्थंडिल (मलमूत्र-परिष्ठापन)-भूमि, अप्रमाजित-दुष्प्रमार्जितस्थडिल (मलमूत्र डालने की)-भूमि ; यह तीसरा अतिचार है। पौषधवत लेने में और उसकी क्रिया या अनुष्ठान के प्रति अनादरभाव रखना अर्थात उत्साहरहित विधि से पौषध करना. किसी तरह से पौषधविधि पूर्ण करना ; यह 'अनादर' नाम का चौथा अतिचार है । तथा पोषध स्वीकार करके उसे भूल ही जाना, अमुक विधि की या नहीं की? इसको स्मृति न रहना-अस्मृति नाम का पाँचवा अतिचार है । ये अतिचार उसे लगते हैं, जिसने सर्वपोषध लिया हो । जिसन देश से (आंशिक) पोषध किया हो, उस ये अतिचार नहीं लगते हैं। अब अतिथि-सविभाग-व्रत के अतिचार कहते हैं-- सचिते क्षेपणं तेन, पिधानं काललंघनम् । मत्सरोऽन्यापदेशश्च, तुर्यशिक्षाव्रते स्मृताः ॥१८॥ अर्थ-साधु को देने योग्य वस्तु पर सचित्त वस्तु रख देना, सचित्त से ढक देना;
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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