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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश नहीं समझना चाहिए। क्योंकि इसके विपरीत वचन भी व्यवहार भाष्य में मिलता है। वहां कहा है"राजसुयाई पंचावि पोसहसालाए समिलिया" अर्थात् 'राजपुत्रादि पांचों पापधशाला में एकत्रित हुए।' अधिक क्या कहें ? ये पांचों अतिचार सामायिकव्रत के कह दिये है। अब देशावकाशिकव्रत के पांच अतिचार
प्रेष्यप्रयोगानयने पुद्गलक्षेपणं तथा ।
शब्दरूपानुपातौ च व्रते देशावकाशिके ॥११६॥ ___ अर्थ-दूसरे शिक्षावत देशावकाशिक में- (१) प्रेष्य-प्रयोग (२) जानयन (३) पुदगलक्षेपण (४) शब्दानुपात और (५) रूपानुपात, ये पांच अतिचार लगते हैं।
व्याख्या-दिग्परिमाणवत का विशेष रूप ही देशावकाशिक व्रत है। इसमें इतनी विशेषता है कि दिव्रत यावज्जीव (आजीवन) या वर्ष अथवा चौमासे के लिए होता है; और देशावकाशिकवत तो दिन, प्रहर, मुहूर्त आदि प्रमाण वाला होता है। इसके पांच अतिचार हैं । वे इस प्रकार है- (१) स्वयं नियम किये हुए क्षेत्र के बाहर कार्य करने की आवश्यकता पड़ने पर स्वय न जा कर दूसरे को भेजना ; स्वयं जाय तो व्रतभंग होता है, इसलिए यह प्रेय-प्रयोग अतिचार कहलाता है। दशावकाशिकव्रत इस अभिप्राय से ग्रहण किया जाता है कि जाने-आने के व्यापार से होने वाली जीवविराधना न हो । परन्तु देशावकाशिकव्रती स्वयं करता है, या दूसरे से करवाना है, उसमें कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता । बल्कि स्वयं ईर्यासमिति पूर्वक जाए तो विराधना के दोप से भी बच सकता है । दूसरे को समिति का ख्याल नहीं होने से अजयणा आदि के दोष लग सकते है । यह पहला अतिधार है । गमनागमन के लिए निश्चित किये गए स्थान के नियम से बाहर के क्षेत्र से सचेतन द्रव्य दूसरे से मंगवाना, इस बुद्धि से स्वयं जाता है तो व्रतभंग होता है, और दूसरे से मंगवाये तो व्रत-भग नहीं होता, परन्तु अतिचार लगता है। इस प्रकार यह दूसरा अतिचार है । तथा पुद्गल-संपात जहाँ ककड़, लकड़ी, सलाई आदि पुद्गलों को इम ढग से फेंके, जिससे उस स्थूल संकेत को दूसरा समझ जाय और पाम में आने पर वह उस कार्य कहे, परन्तु स्वयं वह कार्य नहीं करे ; यह तीसरा अतिचार है। शब्दानुपात का अर्थ है- स्वयं जिस मकान में हो, उसके बाहर नहीं जाने का नियम ले रखा हो; फिर भी बाहर का कार्य आ जाए तब, 'यदि मैं स्वयं जाऊँगा तो मेरा नियम भंग होगा. यों समझ कर स्वयं बाहर नहीं जा सकता, दूसरे को बला नहीं सकता। अतः स्वयं वहाँ खड़ा हो कर बाहर वाले को बुलाने या कोई चीज मंगाने के उद्देश्य से छींकना, या खांसना, इत्यादि अन्य कोई अव्यक्त शब्द करना, जिससे दूसरा नजदीक आए, यह शब्दानुपात नाम का चौथा अतिचार है। इसी कारण से बाहर वाले को अपना रूप बताए, जिससे वह नजदीक आए, यह रूपानुपात नाम का पांचवा अतिचार है। इसका तात्पर्य यह है कि व्रत की मर्यादा के बाहर रहे, किसी मनुष्य को अपने व्रतभंग के भय से बुलाने में असमर्थ हो, तब साधक अपना शब्द, वह सुने इस दृष्टि से प्रगट करे ; अथवा रूप दिखा कर उसे बुलाए ; तो व्रत की सापेक्षता होने से शब्दानुपात और रूपानुपात नाम का चौथा और पांचवा अतिचार जानना। इस व्रत में प्रथम दो अतिचार-प्रेषण और आनयन, वैसी शुद्ध बुद्धि नहीं होने से सहसा या पूर्वसंस्कार आदि से होते हैं और शेष तीन अतिचार मायावीपन से लगते हैं ; यह रहस्य समझ लेना चाहिए। यहां पूर्वाचार्य कहते हैं कि जिस तरह दिगवत में पांचों अणवतों का संक्षेपीकरण होता है, उसी तरह देशावकाशिक व्रत में भी पांचों अण तथा गुणवतों आदि का संक्षेपीकरण होता है। इस पर एक प्रश्न उठता है कि दिग्बत में तथा इसमें