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द्वितीय अणुव्रत के पांच अतिचारों पर विवेचन
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होता; लेकिन अतिचार तो होता ही है। यह कैसे ? इसका उत्तर यों है-व्रत का पालन और भंग दो प्रकार से होता है- अन्नवृत्ति से और बहिवृत्ति से । 'मैं मारूंगा', इस प्रकार के विकल्प के अभाव में, यदि कोई किसी पर गुस्सा करता है या आवेश प्रगट करता है, तो उसमें दूसरे के प्राण का विनाश नहीं माना जाता. इसी प्रकार किसी रोष या आवेश के बिना कोई बन्धन आदि में प्रवृत्ति करना है तो उससे हिंसा नहीं होती । निर्दयता या विरनि की निरपेक्षता से प्रवृत्ति होने से अन्तवृत्ति से व्रतभंग होता है और हिमा का अभाव होने से बहिर्वत्ति के पालन द्वारा आंणिक रूप से देशतः) विरतिभंग होने से प्रवृत्ति के कारण अतिचार का व्यपदेश होता है । इसलिए कहा है-"मैं नहीं मारूंगा', इस प्रकार के नियम जिसने लिये हैं. उसे दूसरे की मृत्यु हुए बिना कोन-सा अतिचार लगता है ? जहाँ क्रोध आदि के वशीभूत हो कर कोई वधादि करता है और अपने गृहीत नियम की अपेक्षा नहीं रखता, वहां अवश्य ही निरपेक्ष कहना चाहिए । यद्यपि दूमरे प्राणी की मृत्यु नहीं होता, इसलिए उसका नियम तो कायम है, लेकिन क्रोधवश या निर्दयता मे प्रवृत्त होने के कारण व्रतभग तो हो ही जाता है । इस दृष्टि से देशतः (आंशिक रूप से) भंग और देशतः पालन होने से पूज्यवरों ने उसे अतिचार कहा है। और जो यह कहा जाता है कि इमसे बारहवत की मर्यादा टट जाती है, वह युक्तियुक्त नहीं है । विशुद्ध अहिंसा के सद्भाव में बन्धन आदि में अनिचार है ही। बन्धनादि से उपलक्षण मे मारण, उच्चाटन, मोहन आदि मन्त्रप्रयोग वगैरह दूसरे अतिचार भी जान लेने चाहिए। अब दूसरे व्रत के अतिचार बताते हैं ..
मिथ्योपदेशः सहसाऽभ्याख्यानं गुह्यभाषणम् ।
विश्वस्तमंत्रभेदश्च कटलेखश्च सुनते ॥९१॥ अर्थ-- (१) मिथ्या (संयम या धर्म के विपरीत, पाप का उपदेश देना, (२) बिना विचार किये एकदम किसी पर दोषारोपण करना, (३) किसी को गुप्त या मम (रहस्य) बात प्रगट कर देना, (४) अपने पर विश्वास करके कही हुई गोपनीय मंत्रणा दूसरे से कह देना और (५) झूठे दस्तावेज, झूठे बहोखाते या झूठे लेख लिखना; ये सत्याणुव्रत के ५ अतिचार हैं।
व्याख्या (१) मिथ्या उपदेश का अर्थ है-- असत उपदेश । असत्य के प्रत्याख्यान व सत्य के नियम लेने वाले के लिए परपीड़ाकारी वचन बोलना असत्यवचन कहलाता है । इसलिए प्रमादवश परपीडाकारी उपदेश देने मे अतिचार (दोष) लगता है। जैसे कोई कहे---गधे और ऊंटों को क्यों बिठाये रखा है ? उनसे काम करवाओ, भार उठवाओ, चोर को मारो इत्यादि । अथवा यथार्थ अर्थ से विपरीत उपदेश देना भी अतिचार है। इसका मतलब यह हुआ कि विपरीत उपदेश को अयथार्थ-उपदेश माना गया है। जैसे कोई किसी पाप को कर ले और उससे पूछे जाने पर उसका ठीक उत्तर न दे. सत्य बात न करे अथवा विवाद में पड़ कर स्वय या दूसरे के द्वारा अन्य किसी के सामने झूठा अभिप्राय प्रगट किया जाय या उलटी प्रेरणा दी या दिलाई जाय, वहां प्रथम अतिचार लगता है। (२) सहसा किसी प्रकार का आगा-पीछा सोचे बिना एकदम किसी पर झूठा दोष या मिथ्या कलंक मढ़ देना, झूठ-मूठ अपराध लगा देना ; जैसे -'तू ही तो चोर है', 'तू परस्त्रीगामी है इत्यादि रूप से कहना सहसाभ्याख्यान नामक दूसरा अतिचार है । कोई-कोई इसके बदले यहाँ 'रहस्याभ्याख्यान' नामक अतिचार बताते हैं । रहः' अव्यय है, उसका अर्थ होता है-एकान्त । एकान्त में होने वाले को रहस्य कहते हैं। झूठी प्रशंसा करना या झूठी निन्दा, चुगली करना भी रहस्याभ्याख्यान है । जैसे कोई किसी बुढ़िया से एकान्त में कहे कि तुम्हारा