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योगशास्त्र । तृतीय प्रकाश दो पैर वाले मनुष्यों में दास, दासी, चोर, पढ़ने में आलसी पुत्र आदि को हितरक्षा की दृष्टि से बांधा जाता है। ताकि समय आने पर आसानी से उस बंधन को खोला जा सके। यह सापेक्ष बन्धन है। निरपेक्ष बन्धन में तो इस प्रकार का कोई विचार नहीं किया जाता । इसलिए चाहे दोपाये प्राणी (मनुष्य) हों, चाहे चौपाये जानवर, निरपेक्ष बंधन हर हालत में त्याज्य है, सापेक्ष बन्धन क्षम्य है। बल्कि पशुओं एवं मनुष्यों को इस प्रकार के स्थान में रहने की आदत डाल दें, जिससे वे स्वतः ही बिना बन्धन के रह सकें । अंगच्छेदन या चमड़ी का छेदन भी सापेक्ष-निरपेक्ष दोनों तरह का समझ लेना चाहिए । किसी के हाथ, पैर, नाक, आदि अवयव निर्दयतापूर्वक काट लेना या आंखें फोड़ देना निरपेक्ष छेदन है, वह अच्छा नहीं है । परन्तु शरीर में फोड़ा हो गया हो, उसमें से मवाद बहती हो या पक गया हो तो उस अंग के अमुक हिस्से का नश्तर लगवा कर इलाज कराना या उस हिस्से को जला देना सापेक्ष अंगछेद है । अतिभार लादना भी अहिंसा की दृष्टि से ठीक नहीं । अव्वल तो श्रावक को दोगाये या चौपाये प्राणियों वाली गाड़ी या सवारी द्वारा अपनी अजीविका छोड़ देना चाहिए । यदि और कोई रोजगार न हो तो दो पर वाले मनुष्य जितना बोझ अपने आप उठा सकें, उतना ही उनसे उठवाना चाहिए। चौपाये जानवरों को हल, गाड़ी, रथ आदि में जीतने पर उतना ही वजन लादना चाहिए, जितना वे आसानी से ढो सकें, या ले जा सकें। और उन्हें समय पर छोड़ भी देना चाहिए। प्रहार भी दो प्रकार का है सापेक्ष और निरपेक्ष । अविनीत और उद्दण्ड या दुराचारी, अथवा चोर को कदाचित् सजा देनी पड़े तो भी निर्दयता या द्वेष से नहीं, परन्तु यथायोग्य मामूली प्रहार या डंडा आदि दिखा कर भी उसे सीधे रास्ते पर चलाया या लाया जा सकता है । सापेक्ष प्रहार में अपने पुत्रादि को कहा न मानने या उदंडता करने पर कदाचित् मारना भी पड़े तो उसके मर्मस्थान को छोड़ कर अतहृदय में दया रख कर लात, धू से या थप्पड़ आदि एक या दो बार हलकेसे मारे। निर्दयता से, द्वेष या रोपवश मर्मस्थान पर मारना निरपेक्ष प्रहार है, वह उचित नहीं है। आहारपानी का निरोष भी सार्थक-निरर्थक एवं सापेक्ष-निरपेक्षरूप से ४ प्रकार का है। किसी का भोजनादि सर्वथा बंद कर देने से कभी-कभी वह भूख-प्यास से पीड़ित हो कर आर्तध्यान करता हुआ मर जाता है। इसलिए शत्र या अपराधी के बारे में भी ऐसा न करना चाहिए । ऐसा करना निरर्थक भोजनादि-निरोध है। किन्तु किसी को बुखार या अन्य बीमारी में लंघन करवाना पड़े अथवा प्रयुक्त भोज्य पदार्थ बंद करना पड़े तो उतने समय के लिए ही बंद करना सार्थक और सापेक्ष निरोध है। अपने द्वारा बंधन में डाले हुए या रोक कर रखे हुए आश्रित प्राणी को पहले आहार करवा कर फिर स्वयं भोजन करे। अपराधी को कदाचित दण्ड देना पड़े तो केवल वाणी से कहे कि 'आज तुम्हें भोजन आदि नहीं मिलेगा।' रोगशान्ति आदि के लिए श्रावक उपवास करा सकता है । अधिक क्या कहें ! श्रावक को स्वयं विवेको बन कर अहिंसारूप मूलगुण में अतिचार न लगे इस तरह से यतनापूर्वक व्यवहार या प्रवृत्ति करनी चाहिए।
यहाँ शंका होती है कि श्रावक के तो हिमा (वध) का ही नियम होता है, इसलिए बन्धन आदि में दोष नहीं है; हिंसा से विरति के अखंडित होने से यदि बन्धन आदि का नियम लिया हो, और उस हालत में बन्धन आदि करे तो विरति खण्डित हो जाने से व्रतभंग होता है। या बन्धन आदि के प्रत्याख्यान ले लेने के बाद व्रत की मर्यादा टूट जाती है तो प्रत्येक व्रत में अतिचार होता है, किन्तु बन्धन आदि का तो कोई अतिचार होता नहीं।" इसका समाधान यों करते हैं तुम्हारी बात ठीक है, हिंसादि का प्रत्याख्यान किया है,लेकिन बन्धनादि किया हो तो केवल उसके नियम में अर्थापत्ति से उनके भी प्रत्याब्यान किए हुए समझना । बन्धनादि हिंसा के उपायभूत हैं। इसलिए उनके करने पर वनभंग तो नहीं