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योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश हो । तुमने जिस प्रकार का तप प्रारम्भ किया है, मैं उसमें कोई विध्न नही डालती, लेकिन जरा इस अत्यन्त कठोर शिलातल से तो हट कर इस ओर हो जाओ।" माता भद्रा का मोह-प्राबल्य देख कर श्रेणिक राजा ने उससे कहा-- 'माता ! आप हर्ष के स्थान पर व्यर्थ ही रुदन क्यों करती हैं ? ऐसे धर्मवीर तपोवीर पुत्र के कारण ही तो आप संसार में एकमात्र भाग्यशालिनी पुत्रवती कहला रही हैं । आपके इस महापराक्रमी पुत्र ने संसार का तत्त्व समझ कर तिनके के समान लक्ष्मी का त्याग करके, साक्षात मोक्षमूर्ति प्रभुचरणों को प्राप्त किया है। त्रिलोकीनाथ के शिष्य होने के नाते ये तदनुरूप ही तपस्या कर रहे हैं । आप व्यर्थ ही स्त्रीस्वभाववश मन में दुःखित हो रही है । छोड़ी इस मोह को, कर्तव्य का पालन करो।" राजा के द्वारा प्रतिबोधित दुःखित हृदय भद्रा माता दोनों मुनियों को वन्दना करके अपने घर पहुंची । श्रेणिक राजा भी वापिस लौटे । इधर धन्ना-शालिभद्र दोनो मुनि समाधिपूर्वक आयुष्य पूर्ण कर तैतीस सागरोपम की स्थिति वाले सर्वार्थसिद्ध नामक वैमानिक देवलोक में पहुंचे । उत्तम देव बने । इस प्रकार संगम ने सुपात्रदान से भविष्य में बढ़ने वाली अद्वितीय सम्पदाएं प्राप्त की थी। इसलिए पुण्यार्थी मनुष्य को अतिथिसंविभागवत के यथाविधि पालन में सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए ।
इस प्रकार बारह व्रतों पर विवेचन कर चुके हैं। अब उनके पालन में सम्भावित अतिचारों (दोषों) से रक्षा करने हेतु अतिचारों का स्वरूप और उनके प्रकारो के विषय में कहते है -
व्रतानि सातिचाराणि, सुकृताय भवन्ति न ।
अतिचारास्ततो हेयाः पंच पंच व्रते व्रते ॥८९॥ अर्थ-अतिचारों (दोषों) के साथ व्रतों का पालन सुकृत का हेतु नहीं होता। इस लिए प्रत्येक व्रत के पांच-पांच अतिचार हैं, उनका त्याग करना चाहिए।
व्याख्या-अतिचार का अर्थ व्रत में आने वाला मालिन्य या विकार है । मलिनता (दोष) से युक्त व्रताचरण पुण्यकारक नही होता । इसी हेतु से प्रत्येक वस्तु के जो पांच-पांच अतिचार हैं, उनका त्याग करना आवश्यक है । यहाँ एक शका प्रस्तुत की जाती है कि 'अतिचार तो सर्वविरति में ही होते हैं ; उसी में ही तो संज्वलन कषाय के उदय से ही अतिचार पैदा होते हैं !' इसका समाधान करते हुए कहते है-"यह ठीक है कि सभी अतिचार संग्वलनकषाय के उदय से होते हैं । उसमें पहले-पहले के १२ कषायों का मूलतः उच्छेदन हो जाता है । और संज्वलनकषाय का उदय सर्वविरतिगुणस्थान वाले के ही होता है ; देशविरतिगुणस्थान वाले के तो प्रत्याख्यानावरणीय कषाय का उदय होता है। इसलिए देशविरति श्रावक के व्रतों में अतिचार संभव नहीं है । यह बात सिद्धान्त की दृष्टि से ठीक है । यहाँ उसकी न्यूनता होने से कुथुए के शरीर में छिद्र के अभाव के समान है। वह इस प्रकार घटित होता है-प्रथम अणुव्रत में पहले स्थूल प्राणियों के हनन का संकल्प से, फिर निरपराध का, फिर द्विविध-त्रिविध आदि विकल्पों के रूप में त्याग किया जाता है; इसलिए बहुत अवकाश दे देने पर अत्यन्त सूक्ष्म हो जाने पर देशविरति का अभाव होने से देशविराधनारूप अतिचार लग ही कैसे सकता है ? अतः उसका सर्वया त्याग ही उचित है ! महाव्रत बड़े होने से उनमें अतिचार लगने की सम्भावना है। महाव्रतों में अतिचार हाथी के शरीर पर हुए फोड़े पर पट्टी बांधने के समान है।" इसके उत्तर में कहते हैं-'देशविरति गुणस्थान में अतिचार सम्भव नहीं है, यह बात असंगत है। श्रीउपासकदशांगसूत्र में प्रत्येक व्रत के पांच-पांच अतिचार बताये हैं। उसके विभाग भी कहे हैं । परन्तु वहाँ अतिचार न कहे हों, ऐसा भी नहीं कहना चाहिये । आगम में विभाग और अतिचार दोनों अलग-अलग माने गये हैं ; इस दृष्टि से कहा है कि