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सामायिकसूत्र के पाठ का व्याख्यासहित अर्थ
२७७ इस सम्बोधन से प्रत्यक्ष-गुरु का आमंत्रण होता है । जैनागमों में बताया गया है कि प्रत्यक्षगुरु के अभाव में परोक्ष-गुरु के लिए भी अपनी बुद्धि से अपने सामने प्रत्यक्षवत् कल्पना की जा सकती है। जिनेश्वरदेव के अभाव मे जिन-प्रतिमा मे जिनत्व का आरोप कर जैसे स्तुति. पूजा, सबोधन आदि होते हैं, वैसे ही साक्षात्गुरु के अभाव मे मन में उनकी कल्पना करके अपने मामने मानो प्रत्यक्ष विराजमान हों, इस तरह की स्थापना करके साधक मभी धर्मक्रिया आदर-पूर्वक कर सकता है। अतः इसे बताने के लिए ही भंते शब्द का आमंत्रण अर्थ में प्रयोग किया गया है । अतः कहा है कि 'जो गुरुकुलवास में रहता है, वह ज्ञानवान होता है। वह दर्शन तथा चरित्र में अत्यन्त स्थिर हो जाता है। इसलिए भाग्यशाली उत्तम आत्मा जीवनभर गुरुकुलवास (गृह का आश्रय - गुरु-निथाय) नहीं छोड़ते । अथवा भंते' पद पूर्वमहषियों द्वारा उक्त होने मे प्राकृत व्याकरण के नियमानुसार आम्' सूत्र के आधार पर 'भवान्त' पद के बीच के वर्ण का लोप हो कर 'अत एत्सो सि मागध्याम्-८४१२८७ इम मूत्र से अर्धमागधी के नियमानुसार प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकार का एकार हो जाता है। इम नरह भवान्तशब्द का भी प्राकृत में 'भंते' रूप हो गकता है। इम दृष्टि से इसका दूसरा अर्थ हुआ "भंते' यानी 'भवान्त' अर्थात् संसार से पार उतरने और उतारने वाले। 'सामाइयं' का अर्थ पहले कहा जा चुका है । अर्थात् साधक संकल्प करता है कि मैं आत्मा को समभाव में स्थिर करता हूं।" आत्मा ममभाव मे स्थिर कैसे होगा ? इसके लिये आगे का संकल्प है - -'मावज्ज जोगं पच्चक्खामि' -- सावध अर्थात पापयुक्त जो योग, मन, वचन और काया का पापप्रवृत्तिरूप व्यापार, उसका पच्चक्खामि अर्थात त्याग करता हूं। साधक यहाँ सावद्यप्रवृत्ति के विरुद्ध निर्णय करता है अथवा उसे नहीं करने का आदरपूर्वक निर्णय करता है। वह कब नक? उसका नियम आगे कहते हैं-"जाव साहू पज्जुवासामि" अर्थात् जब तक साधु की पर्युपामना करता हूँ, तब तक सामायिक करूंगा।
यहां जो "यावत्" शब्द है, उसके तीन अर्थ होते है-(१) परिमाण, (२) मर्यादा और (३) अवधारणा--निश्चय । परिमाण का अर्थ है-जहां तक साधु की पर्युपासना (सेवा) करे, उतने समय तक पापमय व्यापार का त्याग करना । मर्यादा का अर्थ है - माधु की पर्युपामना (सेवा) प्रारम्भ करने से पहले अथवा सामायिक लेने से पहले से पाप-व्यापार का त्याग करना और अवधारणा का अर्थ है -- माधु की गर्युपामना करे. वहां तक के लिये ही पापव्यापार को छोडना ; उसके बाद नहीं। इस तरह जाव' शब्द के तीन अर्थ ममझना । परन्तु आजकल 'जावनियम' बोला जाता है। इससे सामायिक का परिमाण वर्तमानकाल में कम से कम एक मूहर्त (दो डी-४८ मिनट) का माना जाता है । अत: फलितार्थ यह हुआ कि सामायिक के प्रारम्भ से ले कर पूर्ण होने तक ही सावध (मदोष) व्यापार (प्रवृत्ति) का त्याग करना, उसके बाद नहीं । माधक उस पापव्यापार का किस रूप में न्याग करता है ? इसके लिये आगे का पाठ बताते हैं--"विहं तिविहेण" । इसका अर्थ है.. साधक को सामायिक में दो प्रकार से और तीन प्रकार से होने वाले पापव्यापार का त्याग करना है। जहां पापव्यापार का द्विविध त्याग किया जाता है, वहां दो करण से समझना चाहिए ! जैसे-'न करेमि, न कारवेमि ।' अर्थात् मैं स्वयं पापव्यापार नहीं करूगा और न दूसरे से कराऊंगा । इस तरह सामायिक में इन दोनों प्रकारों से हो सकने वाले पाप-व्यापार का गृहस्थसाधक त्याग करता है।' अनुमोदनरूपी पाप-व्यापार का निषेध नहीं है; क्योंकि वैसा करना गृहस्थ के लिये अशक्य है। पुत्र, नौकर आदि द्वाग किये गरो कार्य में स्वयं नहीं करने पर भी अनुमोदन का दोष लगता है । अब तिविहेणं - 'तीन प्रकार' से का अर्थ समझिये। यहां करण में तृतीया विभक्ति है। यानी सावधप्रवृत्ति के लिए तीन साधन हैं --मन, वचन और काया । इन्हें