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वेश्यागमन व परस्त्रीगमन के भयंकर दोष
अर्थ कामी पुरुष द्वारा अपना सर्वस्व धन दे देने पर भी जब वह निधन हो जाता है तो जाते-जाते वेश्या उसके पहनने के कपड़े भी छीन लेना चाहती है।
व्याख्या किसी कामलम्पट ने धनाढ्य अवस्था में अपनी सर्वस्व-सम्पत्ति वैश्या को लूटा दी हो, लेकिन पुण्य क्षीण होने पर उसके पास से सम्पत्ति नष्ट हो जाने पर उसे घर से निकाल देती है और जाते जाते पहनने के वस्त्र भी उससे जबरन छीन लेना चाहती है। इतनी कृतघ्न होती है वेश्या ! कहा भी है --किसी कामान्ध ने अग्नी धर्मपत्नी से भी अधिक वश्या की मारमंभाल की हो, लेकिन सम्पत्ति क्षीण हो जाने पर वह आंख उठा कर भी नहीं देखती, बल्कि उसकी इच्छा यही होती है, कि जाते जाते वह पुरुष उसे पहनने के कपड़े भी देता जाय । वेश्यागमन के और भी दोष बताते हैं -
न देवान्न गुरुन्नापि सुहृदो न च बान्धवान् । असत्संगरतिनित्यं वेश्यावश्यो हि मन्यते ॥९१॥
अर्थ वेश्या का गुलाम बना हुआ कामी पुरुष न तो देवों (महापुरुषों) को मानता है, न गुरुओं को, न मित्रों को भी मानता है और न बांधवों को, क्योंकि वह सवा बुरी सोहबत में हो आनन्द मानता है । उसी में मस्त रहता है ।
कुष्टिनोऽपि स्मरसमान् पश्यन्ती धनकांक्षया। तन्वन्तों कृत्रिमस्नेहं नि.स्नेहांगणिकां त्यजेत् ॥१२॥
अर्थ वेश्या एकमात्र धन की आकांक्षा से कोढ़ियों का भी कामदेव के समान देखती है और बनावटी स्नेह दिखाती है, समझदार पुरुष ऐसी नि:स्नेह गणिका का दूर से हो त्याग करे।
व्याख्या वेश्या की अभिलाषा सिर्फ धन प्राप्त करने की रहती है । अगर कोढ़िये भी हैं, और उनके पास धन की थैली है तो उन्हें भी वह कामदेव के समान मान कर कृत्रिम हावभाव और झूठे प्रेम का स्वांग रचती है । क्योंकि ऊपर से स्नेह का नाटक किये बिना उनसे धन की प्राप्ति हो नहीं सकती। इसलिए कृत्रिम स्नेह रखने वाली स्नेहरहित गणिका का परित्याग करना चाहिए। अब परस्त्रीगमन के दोष बताते हैं -
नासक्त्या सेवनीया हि स्वदारा अप्युपासकः । आकरः सर्वपापानां किं पुनः परयोषितः ।।९३॥
अर्थ श्रमणोपासकों को अपनो स्त्री का सेवन भी आसक्तिपूर्वक नहीं करना चाहिए, तो फिर समस्त पापों को खान पराई स्त्रियों को तो बात ही क्या है ?