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________________ १६८ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश है । सत्य से प्रसन्न हो कर देवता भी इस राजा की सेवा में रहते हैं ।" इस प्रकार वसु राजा की उज्ज्वल कीर्ति प्रत्येक दिशा में फैल गई । उस प्रसिद्धि के कारण भयभीत बने हुए अन्य राजा वसुनृप के अधीन हो गए । 'प्रसिद्धि सच्ची हो या झूठी, राजाओं को विजय दिलाती हो है ।" एक दिन नारद पर्वत के आश्रम में मिलने आया । तब उसने बुद्धिशाली पर्वत को अपने शिष्यों को ऋग्वेद की व्याख्या पढ़ाते हुए देखा। उस समय " अर्जयंष्टव्यम्" सूत्र आया तो उसकी व्याख्या करते हुए 'अज' शब्द का अर्थ समझाया - 'बकरा ।' यह सुनकर नारद ने पर्वत से कहा- 'बन्धुवर ! इस अर्थ के बहने में तुम्हारी कहीं भूल हो रही है । तुमने भ्रान्तिवश अज का बकरा अर्थ किया है, जो नहीं होता है । अज का वास्तविक अर्थ होता है - 'तीन साल का पुराना धान्य, जो ऊग न सके । हमारे गुरुदेव ने भी अज का अर्थ धान्य ही किया था । क्या तुम उसे भूल गये ?' उस ममय प्रतिवाद करते हुए पर्वत ने कहा- 'तुम जो अर्थ बता रहे हो, वह अर्थ पिताजी ने नहीं किया था । उन्होंने 'अज' शब्द का अर्थ बकरा ही किया था । और कोष में भी यही अर्थ मिलता है ।' तब नारद ने कहा'भाई ! किसी भी शब्द के गौण और मुख्य दो अर्थ होते हैं । गुरुजी ने हमें 'अज' शब्द के विषय में गौण अर्थ कहा था । गुरुजी धर्मसम्मत उपदेश देने वाले थे । श्रुति भी धर्मस्वरूपा ही है । इसलिए मित्र ! श्रुतिसम्मत और गुरूपदिष्ट दोनों अर्थों के विपरीत बोल कर तुम क्यो पाप-उपार्जन कर रहे हो ?' पर्वतक ने अब इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और हठाग्रहपूर्वक कहा --' -'गुरुदी ने अजान्मेवान् श्रुतिवाक्य में अज का अर्थ बकरा ही बताया है । गुरुजी के बताए हुए अर्थ का अपलाप करके क्या तुम धर्म-उपार्जन करते हो ?" अभिमानयुक्त मिथ्यावाणी मनुष्य को दण्ड या भय देने वाली नहीं होती । अतः पर्वतक ने कहा - "चलो, इस विषय में हम शर्त लगा लें। अपने पक्ष को सत्य सिद्ध करने में जो असफल होगा, उसे अपनी जीभ कटानी होगी। पहले यह शर्त मंजूर कर लो। तब हम दोनों सहपाठी वसुराजा को प्रामाणिक मान कर इस विषय में उसके पास निर्णय लेने के लिए चलेंगे । उस सत्यवादी वा निर्णय दोनों को मान्य करना होगा ।" नारद ने उस शर्त को और उस सम्बन्ध में वसुराजा द्वारा दिये हुए निर्णय को मानना स्वीकार किया, क्योंकि 'सांच को आंच नहीं !' सत्य बोलने वाले को भय और क्षोभ नहीं होता । पर्वत की माता ने जब दोनों का विवाद और परस्पर शतं लगाने की बात सुनी तो वह बहुत चिन्तित हुई और अपने पुत्र पर्वतक को एकान्त में ले जा कर कहा-' बेटा ! जब मैं घर का कार्य कर रही थी, तब तेरे पिता के मुंह से मैंने 'अज' शब्द का अर्थ तीन साल पुराना धान्य ही सुना था । तूने जीभ कटाने की जो शर्त लगाई है, वह अहंकार और हठ से युक्त है ! यह काम तूने बहुत अनुचित किया है। बिना विचारे कार्य करने वाला अनेक संकटों से घिर जाता है ।" पर्वत ने जरा सहमते हुए कहा - "माताजी ! अब तो मैं आवेश में आ कर जो कुछ कर चुका, वह कर चुका । अब आप बताइये कि फैसला हमारे पक्ष में किसी सूरत से हो सके, ऐसा कोई उपाय है या नहीं ? पर्वत पर भविष्य में आने वाले भयंकर संकट की आशंका से पीड़ित व कांटे चुभने के समान व्यथित हृदय से माता सीधी वसुराजा के पास पहुंची। पुत्र के लिये क्या-क्या नहीं किया जाता ? गुरुपत्नी को देखते ही वसुराजा ने प्रणाम करते हुए कहा - "माताजी ! आओ, पधारो ! आपको देखने से ऐसा लगता है, मानो आज मुझे, साक्षात गुरुश्री क्षीरकदम्बक के ही दर्शन हुए हैं। कहिए, मैं आपके लिये क्या करू ? क्या दूँ ?” तब ब्राह्मणी ने कहा- "पृथ्वीपति ! मुझे पुत्रभिक्षा चाहिए, केवल इसी एक चीज की जरूरत है, बेटा ! पुत्र के चले जाने पर धन-धान्य आदि दूसरे पदार्थों के होने से क्या लाभ ?" वसु ने कहा- -'माताजी ! पर्वत मेरे लिये पूज्य है ; उसकी सुरक्षा मुझे करनी चाहिए ! श्रुति में कहा है- 'गुरु के पुत्र के साथ गुरु के
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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