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अज शब्द के अर्थ पर पर्वत और नारद में विवाद का वसुराजा द्वारा असत्य-निर्णय
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वे स्वयं मार सकते थे। हम तीनों को एक-एक मुर्गा दे कर मार लाने की आज्ञा दी है, उसके पीछे गुरुजी का आशय हमारी अहिंमाबुद्धि की परीक्षा लेने का है। उनकी आज्ञा का तात्पर्य यही है .. 'मुर्गे का वध न करना ।' मैं इसे नहीं मारूंगा।' यों निश्चय करके नारद मुर्गे को मारे बिना ही ले कर गुरुजी के पास आया। और गुरुजी से मुर्गा न मार सकने का कारण निवेदन किया। गुरुजी ने मन ही मन निश्चय किया कि यह अवश्य ही स्वर्ग में जाएगा और नारद को स्नेहपूर्वक छाती से लगाया एव ये उद्गार निकाले -अच्छा, अच्छा, बहत अच्छा किया बेटे !"
कुछ ही देर बाद वसु और पर्वत भी आ गए। उन्होंने कहा - "लीजिए गुरुजी ! हमने आपका आज्ञा का पालन कर दिया । जहाँ कोई नहीं देखता था, उसी जगह ले जा कर अपने-अपने मुर्गे को मार कर लाये हैं। गुरु ने उपालम्भ के स्वर में कहा---'पापात्माओ ! तुमने मेरी आज्ञा पर ठीक तरह से विचार नहीं किया । जिस समय तुमने मुर्गे को मारा, क्या उस समय तुम उसे नही देखने थे? या वह तुम्हे नहीं देख रहा था? क्या आकाशचारी पक्षी आदि खेचर नही देखते थे ?" खैर, तुम अयोग्य हो । क्षीरकदम्बक के निश्चय किया कि ये दोनों नरकगामी प्रतीत होते हैं। तथा उनके प्रति उदासीन हो कर उन दोनों अध्ययन कराने की रुचि खत्म हो गई। विचार करने लगे-वसु और पर्वत को पढ़ाने का श्रम गया । सच्चे गुरु का उपदेश पात्र के अनुसार फलिन होता है । बादलों का पानी स्थानभेद के कारण ही सीप के मुह में पड़ कर मोती बन जाता है, और वही सांप के मुह में पड़ कर जहर बन जाता है, या ऊषर भूमि या खारी जमीन पर या समुद्र में पड़ कर खारा . बन जाता है । अफसास है, मेरा प्रिय पुत्र
और पुत्र से बढ़कर प्रिय शिष्य वसु दोनों नरक में जायेंगे। अतः ऐसे गृहस्थाश्रम म रहने से क्या लाभ ? इस प्रकार विचार करते-करते क्षीरकदम्बक उपाध्याय को संसार से विरक्ति हो गई । उन्होंने तीव्र वैराग्यपूर्वक गुरु से दीक्षा ले ली। अब उनका स्थान उनके व्याख्याविचक्षण पुत्र पवंत ने ले लिया । गुरु-कृपा से सर्वशास्त्रविशारद बन कर शरदऋत के मेघ के समान निर्मलबद्ध से युक्त नारद अपनी जन्मभूमि में चले गए । राजाओं में चन्द्र समान अभिचन्द्र राजा ने भी उचित समय पर मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली । उनकी राजगद्दी पर वसुदेव के समान वसुराजा विराजमान हुए । वसुराजा इस भूतल पर सत्यवादी के रूप में प्रसिद्ध हो गया। वसराजा अपनी इस प्रसिद्धि की सरक्षा के लिए सत्य हो बोलता था । एक दिन कोई शिकारी शिकार खेलने के लिए विन्ध्यपर्वत पर गया। उसने एक हिरन को लक्ष्य करक तीर छोड़ा ; किन्तु दुर्भाग्य से वह तीर बीच में ही रुक कर गिर पड़ा। तीर के बीच में ही गिर जान का कारण ढूढने के लिए वह घटनास्थल पर पहुंचा। हाथ से स्पर्श करते ही उसे मालूम हुआ कि आकाश के समान स्वच्छ कोई स्फटिकशिला है।' अतः उसने सोचा- 'जैसे चन्द्रमा में भूमि की छाया प्रतिबिम्बित होती है, इसी तरह इस शिला के दूसरी ओर प्रतिबिम्बि। हिरण को मैंने कही देखा है।" हाथ से स्पर्श किये बिना किसी प्रकार जाना नहीं जा सकता । अत. यह शिला आश्य ही वसु राजा के योग्य है।' यों सोच कर शिकारी ने चुपचाप वह शिला उठाई और वसुराजा के पास पहुंच कर उन्हें भेट देते हुए शिला प्राप्त होने का सारा हाल सुनाया । राजा वसु सुन कर और गौर से शिला को क्षण भर देख कर बहुत खुश हुआ। उस शिकारी को उसने बहुत-सा इनाम दे कर विदा किया । राजा ने उस शिला की गुप्तरूप से राजसभा में बैठने योग्य एक वेदिका बनाई और वेदिका बनाने वाले कारीगर को मार दिया।" सच है, राजा कभी किसी के नहीं होते ।" वेदिका पर राजा ने एक सिंहासन स्थापित कराया। इसके रहस्य से अनभिज्ञ लोग यह समझने लगे कि सत्य के प्रभाव से वसु राजा का सिंहासन अधर रहता